रविवार, 26 दिसंबर 2021

इच्छाशक्ति

               इच्छाशक्ति

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अंधेरो की गुलामी से नही आजाद हो पाया ,
नही कुछ पल नसीबो में मेरे खद्योत ही आया ,
समझकर जिंदगी के इन तजुर्बेमय इशारो को,
जिया मन भर के समय जो हक में मेरे आया ।

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नही ख्वाहिश है छू लू मैं उछलकर चांद तारो को,
पहन लू मैं न  कभी इन विजयी पुष्पहारो को।
जिस मिट्टी की काबिलियत काबिल बना हूं मैं ,
उठाकर फेंक दूं दामन से उनके बिखरे खारो को ।

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बिछाकर राह में कांटे सताने की कोशिशें की ,
उसी पथ पर मुझे उसने चलाने की कोशिशें की,
चट्टान बन के रोक लिया उन्ही के काफिले को मैं ,
बहुत शरमायादारो  ने हटाने की कोशिशें की ।

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फिजाओं में है बिखरे हर तरफ रंगीनियाँ देखो,
इस मिट्टी की मेरे मुल्क की मेहरबानियां देखो,
शहर में सज रहा उत्सव फूलों का सेज रातो में,
कहीं सुख चैन नही है लोगो की परेशानियां देखो ।

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इन पर्वतों  को भी मेरी औकात  बता दो ,
ये घमण्ड गर करे तो इसे मेरा पता  दो ,
कहीं मैं रूबरू हो जाऊं न मन्नत ये मांग ले ,
मांझी दशरथ का हूं मैं 'अवतार 'बता  दो ।

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गुंजाइशो के बीच मैंने सफर को पूरा किया ,
न लौटा बीच राह से न काम  अधूरा किया ,
टकराने को आते हुए सभी  शिलापुंज को ,
अपनी कठिन संकल्प से पीसकर चुरा किया ।
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मेहनत की आग से तपा और तपता रहा मैं,
आये हुए सब वेदना को  सहता रहा मै।
जब जब भी पड़ा मार समय रूपी लोहार का ,
तब निखर के आया और खरा बनता रहा मैं ।

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निकल रही धुंआ इन चिमनियों से दम से मेरे,
अजंता एलोरा की गुफा का मैं हूँ चतुर चितेरे,
बागों को मैंने सींचा मेहनत की जल से अपने,
जो खूब  महक रही है हर शाम और सबेरे  ।

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जारी है ...



गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

वेदना

जिरह दिल की कोई समझे नही ,हम जी रहे कैसे।
कहे तो हाल ए मन किससे कहे ,हम जी रहे कैसे।।

टूटा तिलिस्म सपनों का, जीया भी अब जाता नही।
कोई  पूछे तो बतलाये  ,विरह विष पी रहे कैसे।।

बरषों तराशा जिस पत्थर को, मूर्त रूप में लाने को,
छूट गया कर से अब हिम्मत, सूरत बनी रहे कैसे।।

सन्नाटा चहुँ ओर है पसरा ,बैरन सी अब हवा लगे,
बताओ इस तिमिरांगन मे, दुल्हन सजी रहे कैसे।

वेदनाओं से भरा दिल, जश्न अब भाता नही है,
पीड़ा अम्बर गठरी लाद के, जाने जी रहे कैसे।।

काश कहीं उसके संग मैं भी, बनकर पंछी उड़ जाता,
जीवन की उन्मुक्त सफर में ,बिन उनके ही रहे कैसे ।।


एक हाथ से जीवन का ये, बोझ उठाया नही जाता,
डगमगाती  पैरो के नीचे , अब ये महि रहे कैसे।।

मिलइ न जगत सहोदर भ्राता, सत्य वचन है रामचंद्र का,
वेदना की बेड़ी में बंधकर, हम ही जाने जी रहे कैसे।








मंगलवार, 16 नवंबर 2021

स्वतन्त्रता-2

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 स्वतन्त्रता का दीपक है वो जला गया,
महाकाल बनके दुश्मन को है दला गया।
तमारी बनके उसने तम को खूब हरा है,
करके फ़िजा को रोशन है वो चला गया ।।

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अभ्यन्तर में जन के उसने है प्रेम भर दिया,
बनके पारस कुधातु को भी हेम कर दिया।
तब का जीवन हम जी रहे थे अर्थहीन हो,
करके जीवन को मुक्त उसमें छेम भर गया।।

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तन से सहते  गुलामी हिय में आग दह रहे,
अपने ही जमीं को न कभी अपना कह रहे।
ये कैसी विवशता ये  कैसा इम्तिहान था,
थी रोटी की लाचारी शीत घाम सह रहे।।

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कोई पूछे पराधीन से क्या होती स्वतन्त्रता है,
पिंजरे में कैद खग को क्या भांति कनकता है।
पराधीनता में सुख नही ये तुलसी ने भी कहा है,
स्वतन्त्रता है सुख की कुंजी बन पुष्प महकता है।।

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बीती वो काली रातें आजाद हो गए अब ,
तब रंक हो गए थे शहजाद हो गए अब।
लहराती हुई ये तिरंगा सन्देश दे रही है ,
बिखरे हुए कभी थे आबाद हो गए अब।।

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उन्मुक्त अब गगन में उड़ जाओ पवन बनकर,
वसुधा की गोदी अब लहराओ चमन बनकर।
'अवतार' अब मिला है खुशियों का ये खजाना,
इठलाओ लहर बनकर खिल जाओ सुमन बनकर ।।

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स्वतंत्रता -3

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स्वतन्त्रता अच्छी नही ,होती जो संस्कार हीन।
कभी कभी बेगैरत भी कर जाती घर को मलिन।।
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घर मे बच्चों को सदा ,आजादी न प्रदान करे।
दण्ड समय पर दीजिये,गलती जो नादान करे।।
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हो स्वतन्त्र जब फंस जाए, लरिका जो कुसंगत में।
मुश्किल होगा फिर उसको,सही रंगन में रंगत में ।।
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सूर्पनखा जो हो स्वच्छंद, पंचवटी में नही जाती ।
खर -दूषन भी बच जाता,शायद लंका भी रही जाती ।।
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मर्यादा से सदा  सुशोभित ,घर का उपवन रहता है ।
सभ्य समाज की रचना करता,बनकर सुमन महकता है।।
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स्वतंत्रता संगीत भी है ,जो लय बन्धन से सज्जित है।
वरना घोर चीत्कार ये,  करता समाज को लज्जित है।।
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संयम धरकर जब नदियां ,बहती है कल-कल करती ।
जीवों को जीवन देती ,कृषको की समस्या हल करती।।
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पवन,आग,भी संयम से,काम अपना जब करता है।
सांसे बनकर जीता है , दीपक बनकर जलता है ।।
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स्वतंत्रता मर्यादित हो जब, प्राण जगे मानवता में ।
जनमानस  में प्रेम जगे, पड़े दरार विषमता में।।
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स्वतन्त्रता-1


विषय - स्वतन्त्रता
दिनांक - 17 अगस्त 2021
रचनाकार  - श्री रामावतार चंद्राकर
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चीर तमय के गहन हिय को,
 दिव्य दिवाकर चमका है ।
कुंठित मन की अभिलाषाएं,
 हो स्वतंत्र अब दमका है ।
कितनों घर का दीप बुझे ,
तब ये उजियारा आया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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सभ्य पुरातन आर्यावर्त की ,
गौरव को जिसने मलिन किया ।
वैभवशाली विरासत को भी ,
कुटिल दृष्टि से गमगीन किया ।
तोड़ बेड़ियां  अब सोने की ,
चिड़िया ने पंख फुलाया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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मूक रही जो स्वप्न सुनहरे ,
पथ भी लथपथ रक्तभरा था ।
जैसे तूफानों में कोई धर ,
शांत रूप में ओज भरा था ।
अवरुद्ध हो गयी वाणी में ,
अब शारद ने वास बनाया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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सिसक रही थी मानवता जो ,
आज वो देखो आनन्दमय है ।
ब्रज,बंशिवट और यमुना तट ,
झूम रही संतुष्ट हृदय है  ।
बैठ कदम्ब पर फिर केशव ने,
मुरली की तान सुनाया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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बोस,भगत,आजाद ने हमको ,
पेश किया सुन्दर नजराना ।
स्वयं हो गए अमर और हमको,
सौप दिया अनमोल खजाना।
श्रृंग हिमालय पर दम्भ मय,
सपनों का तिरंगा लहराया है।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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महक उठी अब गुलशन फिर से,
अलीगन ने  फिर ली अंगड़ाई।
आसमान पर देवताओं ने भी,
हर्षित होकर  दुंदुभि बजाई ।
गन्धर्वों ने मंगलगान किया अरु,
अरुनप्रिया ने सुमन बरसाया है।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई
जय हिंद

शनिवार, 14 अगस्त 2021

आश्चर्य कैसा

              आश्चर्य कैसा 
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नही अवतार  जीवन का ,
समझ में भेद है  आता ।
कभी दौर ए मोहब्बत में ,
कहीं रंजिश है रह जाता ।
बताकर के कभी ख़ंजर ,
हृदय को भेद जाए तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

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समय की चक्रवातों ने ,
बुना ये जाल कैसा है ।
चमन के तलबगारों पर ,
लगा बन्दिश ये कैसा है ।
नव यौवन सुमन से भी ,
नही खुशबू जो आये तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

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तेरे , आंगन मे आने से ,
नही सुख स्वर्ग से कम था ।
तेरे किंचित उदासी से ,
चार आंखे नीर से नम था ।
बड़ा होकर वही सन्तान ,
अगर आंखे दिखाये तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

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उठाकर गर्त से जिसको ,
सितारा हमने बना दिया ।
कहीं पर घाव देखा तो ,
दवा उनको लगा दिया ।
किये उपकार के बदले ,
दगा अगर मिल जाय तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

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उत्सव में हम आजादी के ,
सजाये ख्वाब थे कितने ।
शिक्षाविद बने पढ़लिख ,
है बालक आज के जितने ।
कड़कती धूप में बचपन ,
जो श्रमबिन्दु बहाये तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।

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नदी की तेज धारा को ,
सहज ही चीर डाला है ।
धरा के गर्भ में जाकर ,
रत्नों को भी निकाला है ।
वहीं पौरुष अगर मजबूरी ,
के "कर"  हार जाए तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

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वारी मथे घृत होइ जो ,
तो विस्मय नही करना ।
कहीं आम, इमली पर उगे ,
तो विस्मय नही करना ।
इन संविधान के पन्नों पर  ,
अगर कब्जा हो जाय तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏🎏

जियो तुम्ह जिंदगानी में ,
हँसीपल को सँजोकर के ।
कभी आती नही दर पर ,
खुशी ,गम ये बताकर के ।
मीठी प्रेम गोरस पर,
खटाई गर पड़ जाए तो ।
नही हैरत जमाने में ,
कहीं कुछ भी हो जाये तो ।।

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रामावतार चन्द्राकर

रविवार, 8 अगस्त 2021

अधिकार



R
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"अधिकार" समान मिले सबको ,
भारत का गौरव और हो ऊँचा ।
जब मानव को मानव पहचाने ,
तब पुष्ट हो मानव धर्म समूचा ।
समता का भाव सुदृढ़ बने ,
और मतभेदों का मकान हिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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है लिखा संविधान के पन्नो पर ,
नही जाती पाती का भेद यहां ।
धोबी, कुम्हार, पण्डित, नाई ,
मिलकर रहते हैं अभेद यहां ।
पर कुओं में आज भी ठाकुर के ,
क्या हरिजन को स्थान मिले ?
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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शोषक और शोषित वर्गो का ,
कानून की अलग किताबे क्यूँ ?
क्यूँ धनवानों की कोठी पर
हैं छुपा हुआ आफताबे क्यूँ ?
मेहनतकश क्यूँ वंचित उन्हें भी,
रोटी, कपड़ा और मकान मिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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भाई - भाई के रोज मुकदमे ,
न्यायालय में आज भी आते हैं ।
कुछ इंच जमीन के खातिर क्यों ,
कौरव पांडव का किया दोहराते है ?
छिनते हक सदा ही अपनों का ,
और सोंचते है कि मान मिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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उबलते श्रमबिन्दु से सींच कृषक ,
दिन-रात वो खेतो को हैं तकता ।
धनिक सदा श्रमफल मोती को ,
बन्द तिजोरी में क्यूँ रखता ।
पूस कि रात में हल्कू को क्यों ,
नही कम्बल रूपी मुस्कान मिले ?
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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भूखे का प्रथम हक भोजन पर ,
लेकिन क्यों भूख से रोज मरे ?
छप्पन व्यंजन छक रहा कोई ,
पर बूढ़ी काकी की आस मरे ।
रोटी के ललक में आज भी जन ,
क्यों थकित, निराश ,परेशान मिले ?
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।


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पढ़ लिख शिक्षित योग्य हो बिटियां ,
तब सामाजिक कुरीतियां आप मिटे ।
नही दहेज के लिए प्रताड़ित हो ,
तब सड़को पर भी वारदात मिटे ।
बालविवाह और पर्दा प्रथा को ,
समाज में  तब नही स्थान मिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले  ।।

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क्यों गेंद बनाकर सिंहासन को,
है भरत राम ने खेल है खेला ? 
अति वैभवशाली अवध राज को ,
पाने को लालायित मन नही डोला ।
कर चिंतन मानस उद्गगारो का,
हर प्रश्नों का समाधान मिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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जल,पावक,गगन,समीर ,धरा ,
पर सबको हक है बराबर का ।
नही कोई बन्दिश अरमानों पर ,
बस दो जाती नारी नर का ।
प्रकृति के नियमावली में भी ,
सब मानव एक समान मिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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सिंहासन को आर्यावर्त के अब ,
न्यायिक उदार सरकार मिले ।
जनतंत्र के सभी जनमानस को ,
अपना मौलिक "अधिकार" मिले ।
गुलजार हो गुलशन तब देखो ,
अरमानो का बागान खिले ।
नही हनन हो नैतिक मूल्यों का ,
सबको हक और सम्मान मिले ।।

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गुरुवार, 22 जुलाई 2021

जीवन का अधिकार

तेरी तरह सब जीना चाहे
सबको जीवन का अधिकार

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क्यों मनमौजी बना है फिरता
मूक जीवन क्यों छेड़ते हो तुम
जो तेरे घट माँझ बिराजत
सबके भीतर देखो ना  तुम
काहे ना अपनाता  मानव
सम्यक जीवन का व्यवहार
तेरी तरह सब....................

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

दम्भ कपट अरु द्वेष ईर्ष्या
शत्रु है ये सरल जीवन का
क्रोध अनल अरु लालच यम सम
मोह  बन्धन है बिरागी मन का
त्याग विषमता के मारग को
प्रेम  भूषित पथ करो स्वीकार
तेरी तरह सब .............................

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देखो आह्लादित अंडज को
खुले गगन में उड़ उड़ जाए
गैरो के आशियाने पर ये 
नही कभी है हक ये जताए
जितना हक तुम्हे दिया विधि ने
करो उन्हें  तुम्ह अंगीकार
तेरी तरह सब ...................

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

कोकिल कुंजे ज्यों बसन्त में
झर झर बहती सरिता धारा
कलरव करती ये बिहंग दल
मन को भाये उपवन प्यारा
देती है सन्देश मनुज को
धारण कर इनका आचार 
तेरी तरह सब ......................

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सूखा हुआ मन की है तलैया
भावो से उसको तुम भर दो
मूर्छित मन को सांसे देकर
नस नस में तुम सांसे भर दो
तेरे सुरभित सांस से महके
पतझड़ भी होकर गुलजार 
तेरी तरह सब......................

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

आहट पाकर सज सज जाए
तेरे ही जलवे से महफ़िल
बन पर्वत अरु जल थल मन को
चाल चलन से ना हो मुश्किल
जाने से तेरे चले जाएं और
और आने से हो त्यौहार 
तेरी तरह सब ........................

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

 तेरे खुद की धड़कन को भी
स्वर देने वाला कोई और है
कर्म,कर्मफल,जन्म मरण को
निर्धारिण करता कोई और हैं
आती जाती ज्यों घड़ियों पर
रहता किसी का नही अधिकार
तेरी तरह सब .........................

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
मूक जीवन - पेड़ पौधे आदि प्रकृति
घट माँझ - हृदय बीच
अंडज - पंछी
तलैया - छोटा तालाब








रविवार, 11 जुलाई 2021

ओझल




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मेरे जीवन से वो क्या ओझल हुए ,
महफिले लूट गयी कारवाँ न रहा  ।
ऐसी बरसी निगाहों से चिंगारियां ,
जल गए सारे खत दास्तां ना रहा ।
सजाना था मुझको ऐ जश्ने बहार,
मन मेरा पर न जाने क्यूं गुमसुम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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देखे सतरँगी अरमान सँजोये थे संग ,
मिलके जिसके नयन से नयन ये मेरा ।
कभी जगमग थी अपनी वफ़ा के दीये ,
शाम नमकीन थी तो मीठा सा सवेरा ।
उसके होने से खुशियां कभी कम न थी ,
उसके खोने से जन्नत जहन्नुम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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प्रेम कश्ती भंवर बीच डूब ना गयी ,
आसरा मुझे तिनके का तब तक रहा ।
लोग पूछते हैं तूफां अधिक थी या कम ,
कारवाँ लूट जाने का कब तक रहा ।
मैं बताऊंगा अपनी व्यथा सब्र कर ,
दास्तां सुन के चन्दा भी कुमकुम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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कभी "अवतार" जिसकी अनुज्ञा से मैं ,
उस प्रणय के निकेतन के दहलीज पर ।
रख दिये थे कदम आचमन के लिए ,
था भरोसा मुझे उसकी ताबीज पर ।
संग उसके मेरे संग था भाग्य भी ,
फिर अचानक से जीवन ये महरूम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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दीप्ति को जिसकी पाकर थी रोशन दीये ,
सदा मिलता रहा कभी ना कुछ गया ।
अब हवा भी सुगन्धित ना मध्यम रहा ,
मेरे जीवन की जलसा से लौ बुझ गया ।
कभी खुशियों  से दिल ये सराबोर था ,
अब ये शीशे सा टूटकर के  मासूम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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 जिसकी उपमा में  हमने कसीदे पढ़े ,
बाग, फूलों, बहारों को समझा ना कुछ ।
उड़ते जुल्फों को मेघों से कम ना कहा ,
हंसी सूरत के आगे थी चन्दा भी तुच्छ ।
उनकी आंखों को मीठा समंदर कहा ,
और ये  बूंदे भी पायल का रुमझुम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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वो मोहब्बत की मल्लिका कहां खो गयी ,
मैं अकिंचन बना यूँ फिरूँ दर-ब-दर ।
देखो सावन भी आकर बरसने लगे ,
आ भी जाओ न तड़पाओ ओ बेखबर ।
धरा भी प्रफुल्लित हो अब सज रही ,
मिलन हेतु अम्बर में भी हुम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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था ये वादा की "ओझल "न होंगे कभी ,
चाहे नदियां की धारा भी विपरीत बहे ।
अपनी चाहत से गुलशन उठेगा महक ,
सिर्फ आहट से अब नवसृजन हो रहे ।
जिसमे पल्लव न फूल और कभी फल लगे ,
ऐसे पतझड़ में  अब वो कल्पद्रुम हुआ ।
जिसकी आगोश में पल रहे ख्वाब थे ,
प्रेमोदधि वो जाने  कहाँ गुम हुआ ।।

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बुधवार, 30 जून 2021

भूलें

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बड़ी भूल हुई इस जीवन में,
शुभ कर्म अलंकृत कर न सके।
बन मानव तो हम यार गए ,
यश भूषण अंग पर धर न सके ।
बेअदब हो गए दुनिया  में,
नैतिकता का अवरोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।

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कौड़ी के खातिर रोज मरा ,
पर धन- ए -शाश्वत भूल गया ।
धनराज जहाँ में बनने हित 
औरों को परोस मैं धूल गया 
अपना अपनी मेरा मेरी ,
निज खुशियो का ही शोध रहा ,
हम भूल गए निज धर्म हमे बस 
स्वारथ का ही बोध रहा ।

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कभी गम में किसी बेगाने के ,
दृगबिन्दु  हम छलका न सके ।
गैरो के दुखों पर खूब हँसा,
खुशियों पे गीत हम गा न सके।
ठग लिया जहाँ में अपनों को ,
खुद ठग जाने पर क्रोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

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पंक में खुदगर्ज के मेरे कदम ,
पल पल धँसता ही चला गया ।
जो निर्बल मूर्ख धनी जन थे ,
हाथो मेरे  सब छला गया ।
नैतिक यश  वफ़ा सभाओं में,
सर्वत्र ही मेरा विरोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

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मैं डूबा रहा  कुसंगतियां बीच,
कछु मानस पूण्य भी कर न सका ।
लालच की प्रचण्ड हवाओं से,
ये मानवमूल्य ठहर न सका ।
हिंसा रत घोर निशा में भी ,
निज उत्थानों का खोज रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

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निन्दारत अघमय महफ़िल में ,
कृतघ्नता का ताज पहनाया गया।
कुटिल कामी कपटी लोभी ,
सबका सरताज बनाया गया।
खुश होता रहा इस प्रगति पर ,
ना भले बुरे का प्रबोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

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अपनी अति उच्च श्रृंखलता से मैं,
मनुजता की हद को लांघ गया ।
मानवमूल्यों  पर पद रखकर ,
मर्कट सा मार छलांग गया ।
मुझे चलने दो स्वेच्छा पथ पर ,
सब जीव जाति से अनुरोध रहा ,
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
हमे बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

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विनम्रता की नेकी शाखाओं को,
कुटिलता की आरी से काट दिया
इस सभ्य समाज के लोगो को ,
जाति सरहद में बांट दिया ।
पाखण्डवाद रूपी  शस्त्र मेरा ,
निज लक्ष्यभेद में अमोघ रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

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मंगलवार, 29 जून 2021

देखनी है मुझे

                  देखनी है मुझे

"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""
दहकती अंगारो में मैंने रख दिया है पांव अब,
ऐ कारे बादल तेरी अवकात देखनी है मुझे ।
बरस ,ना बरस मुझे कोई परवाह नही  अब,
गर्म मेरे आंसू है या ये अंगार ,देखनी है मुझे ।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

चले जाओ की अब ना दिल मे जगह है तेरी,
सांसो की माला से तोड़ दिया नाम का मोती तेरी।
दीये मोहब्बत को मुझे तेल अब नही देना,
तड़पकर बुझती हुई अब लौ ,देखनी है मुझे।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

टूटता  तारा देख कभी मैंने भी मांगी थी मन्नत ,
ऊंचे ऊंचे दरबारों पर दे हाजरी हुआ मस्तक नत।
मिलकर भी वो मिली न मुझको गलियारों में चाहत की,
वफ़ा ए चिलमन को तार तार, देखनी है मुझे ।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

डबडबाती हुई नयनों की समंदर में खोया रहा,
घटा ऐ केश साये में मस्त हो बेखबर सोया रहा।
उफनती स्वास की लहरें की सदा सुनता रहा मै,
क्या रूह को भेद पाएगी मंजर, देखनी है मुझे।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

अश्क ढलता रहा  दिनकर ने सफर पूरा किया,
इस बीच लगा ख़ंजर ने काम अधूरा  किया।
दिल तो जाता रहा यादों की कश्ती बच गयी,
किस ओर लेकर जाएगी हवा ,देखनी है मुझे।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""
जारी है ....

स्वरचित - रामावतार चन्द्राकर
      9770871110









सोमवार, 28 जून 2021

आचरण


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झलकता शब्द से भी है हमारा आचरण हरदम ,
बयां आंखे भी करती है कभी छुपकर कभी हो नम ।
हमारा मौन रहना भी बहुत कुछ बोल जाता है ,
कभी भेद खोल जाती है ये लड़खड़ाती हुई कदम ।

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महकती जिस तरह से है सुमन घुलकर हवाओं में ,
बिखरती चांद की रौनक प्रफुल्लित हो दिशाओं में ।
विचलित कभी शुभ कर्म से  'अवतार ' हम  न हो ,
सिखाता है हमे चन्दन सदा  महको फिजाओं में ।

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परिणाम से लदी हुई वह आम्र की डाली से सीखो ,
छलक पैमाने से अधरों में लिपटती हुई प्याली से सीखो ।
जियो  संस्कारमय  हरपल चलो नेकी  के राह पर ,
भुलाकर द्वेष को झूमती लताएँ मतवाली से सीखो ।

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तृणों को करती है धारण महीधर श्रृंग पर जैसे ,
पृथक कलकंठ कर देती है यूँ नीर क्षीर को जैसे ।
निज दोष हटा, गुणों को अपनाता ही चला चल ,
जगत व्यवहार में निखरो, निखरता है कमल जैसे ।

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रखो संयम कि हर नारी को जननी तुल्य हम जाने ,
न हो अपमान कभी भूलकर की देवी हम उन्हें माने ।
कभी आये विपत्ति तुम बहन का भाई बन जाओ  ,
रखे हम शील लक्ष्मण सा नूपुर को ही जो पहचाने ।

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बनो सुत तो कभी तुम राम परशुराम बन जाओ ,
सुखों को ताक पर रखकर धरम का मार्ग अपनाओ ।
पिता, पति ,भाई बनकर रिश्तों का सम्मान करो तुम ,
बड़ो का आदर ,माँ का दूध ,पिता का कर्ज निभाओ ।

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रहो गम्भीर,उद्द्धि सा न हिय में ज्वार उठने दो  ,
रखो काबू की मन में द्वेष का अंकुर न फूटने दो ।
नही अनहित न कुटिलता न कपट को ही अपनाओ ,
चरित्रवान बनो शील  का  सागर न सूखने दो  ।

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गुणगाहक बनो तज दो हमेशा अहम को अपने ,
करो  उदगार  दुनियां का कभी खुद को न दो छपने ।
सहो अपमान भी  हंसकर फुलाकर मुंह न बैठो,
प्रफुल्लित गात हो हरपल और देखो सौम्यमय सपने ।

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शुक्रवार, 25 जून 2021

चलता ही जाऊंगा

                          
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 सौगन्ध  मुझे करनी होगी की भूल, भूल से भी न हो ,
अब शेष बचे इस जीवन मे अपमान किसी का भी न हो ।हो दुर्गम अगम खार मय पथ ना पीछे कदम हटाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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मेरु के शिखर से लेकर उन थार के रेगिस्तानों से
अवनी अम्बर के आंचल से उन दण्डक वन वीरानों से ।
सागर के अन्तरहृद से मैं दसचारी रतन ढूंढ लाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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भुजदण्ड उठाकर राघव ने कानन में जो बात कहा ,
नींद नारी भोजन को त्याग सौमित्र ने जो सन्ताप सहा ।
अंगद के पाव सा मैं भी अब शुभ संकल्पों को जमाउंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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नवपुंज दिवाकर रश्मि से निज दुर्गुण को नहलाकर के ,
मनोविकार की निकरों को ध्रुवनन्दा से मैं धोकर के ।
अभिअंतर में सद्भावों का दुर्भिक्ष नही पड़ने दूंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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मैं नीलमणि अवलम्बन पर ध्रुव सा अटल विश्वास रखूं ,
विकारों के षणयंत्रो पर  प्रह्लाद सा संयम , आस रखूँ ।
अब कालचक्र आघातों पर मैं मलय का लेप लगाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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चल रहे तिमिरमय राहों में उन पथिको का मैं दीप बनूं ,
खजूर  नही बरगद सा बनूँ स्वातिबून्दों मय सीप बनूँ ।
इन महाभूतों  की शक्ति से पामर को आंख दिखाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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जीवन की इस समरांगण में  निर्वेद अस्र संधान करूँ ,
अरि शस्त्र प्रहार करे जब भी सदचिदानंद का ध्यान धरूँ 
"अवतार "न मीत न बैर कोई , सिद्धांत यही अपनाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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भूल गया था जो इन उच्च आदर्शो के प्रतिमानों को ,
करके अटल "प्रतिज्ञा " मैं अब राह नया अपनाऊंगा ।
दया धर्म करुणा मैत्री गुण भाव सदा धारण करके ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

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बुधवार, 23 जून 2021

मेरी आराधना

कविता का नाम है - मेरी आराधना
रचनाकार -   रामावतार चन्द्राकर
ग्राम - महका,(पंडरिया,कबीरधाम,छत्तीसगढ़)

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हुआ मेरा सौभाग्य उदय ,
पूर्ण हो गयी मेरी उपासना ।
ना जाने मन मे था कबसे,
जीवन की ये दिव्य कामना ।
मंगलमय हो गया आज मैं, 
खुशियों से जो हुआ सामना।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना।

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अहो देव ये कौन खड़ा है ,
मग में दोनों कर पसारकर ।
हुआ देख मैं जिसे स्तम्भित,
ठिठक गया पग मेरा पलभर।
किन्तु जुटा साहस मैं बोला ,
मैं हूं साधक कोई आम ना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

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रोज ही भीड़ में रहकर मैंने ,
सदा अकेले पाया खुद को ।
शुभचिंतक थे पास में मेरे ,
चिंता फिर भी सताया मुझको ।
अपने पराये भला बुरा इस ,
 दौर में मैंने सबको जाना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

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जीवन की इस कृपण धार में ,
यूँ ही बहता गया निरन्तर ।
बीत गए दिन बदला मौसम
किन्तु मुझमे न आया अंतर ।
संकल्पित हो खुद को सम्हाला,
फिर कभी ये हिय हुआ हताश ना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

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व्यथित हुआ मन मेरा जग में ,
हृदयविदारक दृश्य देखकर ।
लगा बाण सुखरथ जीवन को
मानो अन्तहृदय को भेदकर ।
क्षतविक्षित तब हुए पथिक सब
फिर भी मैंने ना छोड़ी साधना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

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कलि के कुटिल प्रहारों को मैं,
झेल गया जिस नाम के बल पर।
जितना मुझे उम्मीद नही था ,
वो सब पाया श्री राम के बल पर
बीत गए वो लम्हे दुख के ,
अब अतीत मुझे रहा याद ना ।
जीत गया देखो किस्मत से,
सफल हो गयी मेरी आराधना।

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जिनको सब कुछ मान थे बैठे,
वही हमारा रिपु बन बैठा।
वाह रे स्वार्थी दुनिया तुमने,
अपनो को ही मात दे बैठा ।
कर ली मैंने राम जी से प्रेम,
दुनियां से अब मुझे मियाद ना।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना।

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मोह की ये घनघोर घटायें,
लगता जैसे यही सत्य हो ।
दशो इंद्री में व्याप्त हुआ ज्यो,
अनन्त से केवल यही रहस्य हो।
अंतर्मन की ऊसर भूमि पर,
बरषी मानो ज्ञान की घना।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

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मंगलवार, 22 जून 2021

शब्दों की मर्यादा


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दिल मे उतरकर अपनो सा,
             अहसास करा जाती  है ।
और कभी दिल को ही भेद ,
              विक्षुप्त बना जाती है ।
कौन हो तुम क्या नियत तेरी ,
               इसको पता है ज्यादा ।
कीमत आपकी  बतला जाती ,
                   शब्दों की  मर्यादा  ।

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गमगीन दुखी हिय अंतश को ,
                   मरहम बन कर सहलाती।
बन शीतल मन्द सुरभित बाऊ,
                       रूठे मन को बहलाती।
निज प्रीतम के उर अंतर में ,
                      छा जाता बन शहजादा ।
कीमत आपकी बतला जाती ,
                      शब्दों की  मर्यादा ।

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भाव तेरे अंतर्मन की  ,
          जग में  जाहिर ये कर देती है ।
व्यथा हो या खुशियां तेरी , 
                 सबको प्रकट कर देती है ।
फितरत कैसी क्या मिजाज तेरा ,
                      रंगीन हो या हो सादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,  
                           शब्दों की मर्यादा ।

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पल भर में अति स्नेहीजन को ,
                      दुश्मन ये कर जाती है।
सम्बन्धों के ऋतु बसन्त में ये,
                  जब पतझङ बन आती है ।
अति पीड़ादायी इसके घाव है ,
                         ख़ंजर से भी ज्यादा  ।
कीमत आपकी बतला जाती , 
                              शब्दों की मर्यादा ।

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बन मधुमय प्याली महफ़िल में ,
                       फिरती है प्रेम लिए ।
व्यथित मन को रोशन करती ,
                   जलती जब लब्ज़ दिए ।
कितनी पाक सौहाद्र भरा दिल,
                      नेक है इनके इरादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,  
                         शब्दों की मर्यादा ।

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हताश मन की गहराई में,
               तब ये उतरती है आशा बन ।
ग्रीष्म ग्रसित व्याकुलता को,
                  तब तृप्ति देती बन सावन ।
कोई साथी साथ में चलने का ,
                     जब करने लगे ये वादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,
                           शब्दों की मर्यादा ।

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शुचि मय आचरण ही है ,
              दिलो को जीतने का फन ।
फहत हर महफ़िले होगी ,
             जहाँ शामिल हो अपनापन।
नही  सूरज,  बनो  दीपक,
               नही उछलो कभी ज्यादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,
                         शब्दों की मर्यादा ।

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जारी है....



सोमवार, 14 जून 2021

वृक्ष







शीर्षक - वृक्ष
रामावतार चन्द्राकर की कलम से

1-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

अवनी के आभूषण बनकर ,
                 सुंदरता मैनें ही बढ़ाया ।
मेरे ही फल -फूल- पत्र से ,
                जीवन ,जीवन को है पाया ।
हरित नवीन परिधान कभी ,
                कभी बनकर छत्र सुहाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं ।

2-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

नव पल्लव से मैं आच्छादित ,
                 नित सौरभ लिए महकता हूं ।
किसलय अति शोभित तन मेरे ,
                 अति व्याकुलता भी हरता हूं।
शीतल -मन्द -सुगन्धित संतत ,
                     बाऊ की चँवर डुलाता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                 जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

3-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मैं तीर्थ तपोवन - पावन -उपवन,
                   साधक अटल यशस्वी -सा ।
मैं सहूँ  धूप ,पानी ,पत्थर,
                    न तजु मैं धर्म तपस्वी -सा ।
मैं वृक्ष सदा से हूँ अकाम ,
                    बिनु मांगे ही फल का दाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                   जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

4-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मेरे ही नव पट धारण से ,
               ऋतुयें भी आती जाती है ।
जाति विविध के विहंग बहु ,
               मुझमे ही आश्रय पाती है ।
बादल को बरसने के खातिर,
               संदेश मैं ही भिजवाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
               जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

5-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मैं बन खजूर ,बरगद, चन्दन ,
               जीवन का सिख दे जाता हूं ।
पीपल, जामुन ,महुआ ,कीकर ,
                बन तप्त हृदय सहलाता हूँ ।
मैं बन रसाल- पाटन -पनस ,
                मानव का भेद बताता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
               जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

6-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

सृष्टि के उद्भव से लेकर मैं ,
                 प्रलय की सत्य कहानी हूँ ।
मैं अर्थ,धर्म अरु काम ,मोक्ष ,
                  मैं प्राण जीव की रवानी  हूँ ।
बन ईंधन आग में जलकर के ,
                 मैं उदर की आग बुझाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                 जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

7-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

उत्सव का जश्न मनाता हूँ ,
                आये बसन्त तो झूम - झूम ।
बरसे सावन खिल-खिल जाऊँ,
                 लहराऊ गगन को चूम - चूम ।
अति आतप  को शीतलता दूँ ,
               पतझड़  की मार भी खाता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                 जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

8-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

जगहित में मदन ने मुझ पर छुप ,
                   कभी शिव पर बान चलाया था ।
बालीवध का प्रारूप राम ने ,
                       मेरे आश्रय में ही बनाया था ।
मैं चरक और सुश्रुत का आराध्य,
                           नव चेतनता भर जाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                      जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

9-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

बन आयुर्वेद मैं ग्रंथ लिखूं ,
                जख्म हेतु मैं सुधा बन जाऊं ।
कभी साज बनूँ आवाज बनूँ ,
                कदम्ब बन कृष्ण को गोद बिठाऊँ ।
संजीवनी बनकर मैं ही तो ,
               सौमित्र के प्राण प्रदाता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
               जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

10-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मैं परोपकार का मूर्त  रूप ,
                    मुझे आहत हे ! मानव न करो ।
 मेरा रक्षण करो संवर्धन दो ,
                     ना हरण चिर वसुधा का करो ।
मैं वृक्ष ही जीवन सृष्टि पर ,
                     आमोद - प्रमोद का धाता  हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                      जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

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शनिवार, 29 मई 2021

अहंकार

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                       अहंकार
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अतिभाग्य मिला यह जीवन है ,
इसे मद लोभ में यूं न बिताओ ,
धर सुकृति सुकर्म के आभूषण ,
यह दुर्लभ मानव जीवन सजाओ ।
शुचिता ,सौहार्द्र भरा जीवन ,
नही अहंकार की  हो साया ,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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अहंकार किया जिसने भी यहाँ,
नही अधिक दिनों तक छत्र रहा,
मिटा उनका अतिशीघ्र  विभव,
अरु पतन का फिर शुरू सत्र रहा।
इसलिए विचार करो मानव,
है अहंकार में काल समाया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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मद में धन बल परिवारन के,
करी कपट सिय हर लायो दशानन,
मारीच करे बहुभाँती प्रबोध ,
तनिक भी बात सुन्यो नही कानन।
निज मद में उसे खबर नही यह,
सीय के रूप में काल है आया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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अति उत्तम कुल में जन्म लिया,
निज भुज तपबल से सुजस है पायो,
अभिमान अधीन फिर होकर के,
अनीत कियो जननी हर लायो।
कहै हनुमान सुन विनती राजन,
अभिमान तजो ,भजो रघुराया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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नही नर नाग ना सुर असुर,
न बाहर भीतर मृत्यु हमारो,
दिवस रजनी नही अस्त्र शस्त्र,
फिर कौन भला हमे रन में मारो।
अति दारुन अत्याचार को देख,
नृसिंह बन अंत है खम्भ में आया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया।।

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काम को जीत लिया जब नारद,
अहिमती मन में उसकी समाई,
चतुरानन ,शिव,बैकुंठपति से,
वह अपनी सारी कीर्ति सुनाई।
माया के राजस्वयम्बर में फिर,
अपना सारा यश है  गंवाया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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मेरी प्रचण्ड वेग को थाम सके,
अवनी में किसी की शक्ति नही,
जब जाऊँ धरा ब्रम्हलोक से तो,
मिट जाए न धरा की हस्ती कहीं।
ब्रम्हकामण्डल से निकली अरु,
शिव जटा में खोकर मार्ग भुलाया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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जीवनपथ पर यह ध्यान रहे,
सूर्य उगा है तो वह डूबा भी है,
सृजन कर नव कर्तव्यों का ,
प्रतिपल मौसम खुशनुमा भी है।
अहंकार है पावक  के समान,
नही शेष रहा जो इसे अपनाया,
अहंकार मत करिए कभी भी,
 अहंकार नही रह पाया ।।

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बुधवार, 26 मई 2021

समय

रचना -कुर्मी रामावतार चन्द्राकर
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समय बहुत अनमोल रे मनवा,
हर घड़ी का सम्मान करें हम ,
समय की धार में बह बह जाए,
नही इनका तिरस्कार करे हम।
कितने भी विपरीत हो घड़ियां,
नही तनिक दुखों का भान रहे,
हर एक समय का आदर करना ,
हर एक घड़ी का ध्यान रहे ।।

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समय अश्व पर हो सवार जब,
मंजिल हमको तब ही मिलेगा,
प्रतिकूलता के घोर तिमिर में,
नित ही आस का दीप जलेगा।
मानवता के पृष्ठभूमि पर ,
नही कर्तव्यों का गुमान रहे,
हर एक समय का आदर करना ,
हर एक घड़ी का ध्यान रहे ।।

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समय के मूल्यों पर निर्धारित,
जीवन को तुम्ह करके देखो,
समय की बलि वेदी पर हर पल,
खुद को अर्पण करके देखो ।
समय के ड्योढ़ी पर जीवन के,
सुख - दुख तब मेहमान रहे,
हर एक समय का आदर करना ,
हर एक घड़ी का ध्यान रहे ।।

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रोज मुंडेर पे रवि की किरणें,
समय पे दस्तक दे जाता है,
सोये हुए हतभाग्य जनों के,
उर में प्रकाश वह भर जाता है।
पोखर में यह खिले कमल दल,
हम सबसे तब यह "बान "कहे ,
हर एक समय का आदर करना ,
हर एक घड़ी का ध्यान रहे ।।

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समय समय पर सबने अपना ,
दुनियां में है हुकुम चलाया,
कंस हो रावण हो या सिकन्दर,
समय की मार से बच नही पाया ।
समय के पदचिन्हों पर चलकर,
हमे नैतिकता का अभिमान रहे,
हर एक समय का आदर करना ,
हर एक घड़ी का ध्यान रहे ।।

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

कठिन समय हो या अनुकूलता,
हे पथिक पथ से विचलित न होना,
समय के नियमो का पालन कर,
सफलता का हर शिखर है छूना ।
नित  हो धर्ममय जीवन अपना,
नित अधरों पर मुस्कान रहे,
हर एक समय का आदर करना ,
हर एक घड़ी का ध्यान रहे ।।
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(बान = बात ,सन्देश)

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

मिल जाएगा

मिल जाएगा 
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विस्मृत मन में ख्वाब सुनहरे ,
यूं ही उलझ उलझ जाए रे,
टूटी हुई सी तारे मन की,
 फिर से राग सुना जाए रे।
तिल तिल मरती हुई सांसो में,
 जीवन फिर से भर जाएगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा ।।

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भूली भूली सी सब राहें,
पल पल पग ये लहराए रे,
दूर कहीं पर खड़ा सिपाही,
बस यही टेर लगा जाए रे ।
घोर अमावस की ये राते,
कुछ पल में ही कट जाएगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा ।।

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बुझी बुझी आशाएं दिल की ,
चंचलता चितवन ने है खोई ,
अपने है अपनो से ही रूठे ,
मानो वह अनजान हैं कोई ।
सूखे दिल की पोखर में फिर,
बहुरंग कमल खिल जाएगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा ।।

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फंसी हुई है जमुन भंवर में ,
जीवन हे कन्हैया कहाँ हो,
कोई भी साहिल दिखे न डगमग,
डोले हे जीवन नैया कहां  हो।
लहरों से अठखेलियां करती ,
जीवन फिर से लौट आएगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा ।।

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छोड़ उमंगों की आँचल को ,
चाहत की तितली उड़ उड़ जाए,
गुमसुम बैठी सुमन कली अब,
ना कोई भौरा भी गुनगुनाये।
बस कुछ दिन की बात है फिर से,
बहार चमन में छा जाएगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा।।

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दिया ही दिया है हमने गर तो,
अपना नही कुछ खोने वाला,
घोर तिमिरमय राहों में भी,
विचलित पग नही होने वाला।
हे धरती के दिव्य अलंकरण,
पा सांसे तुझे सुख पायेगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा।।

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अब हो प्रण नवजीवन में यह ,
नव धर्म के पथ पर पग धरने ,
भूले हुए निज कर्तव्यों को राही,
जीवन मे सुकृति सजग करने ।
आती जाती सुख दुख घड़ियां,
अब कोई गिला नही दे पाएगा,
नेक नियत से मैंने रब से ,
मांगा है अब मिल जायेगा।।

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सकारात्मक सोचो
स्वस्थ रहो


रचना - कुर्मि रामावतार चन्द्राकर














रविवार, 21 मार्च 2021

क्या कहूँ ?

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पाने को मंजिल की खुशबू ,
कितने फूलों को मसल दिया,
कुमुदनी इंदु को अर्पित की ,
सूरज को नव कमल दिया।
आह्लाद हुआ मन जिसको पाकर,
 जाने किसने रहमत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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मीलों  चलकर जलकर आग में ,
जिसको हासिल कर न सका,
अरमान मेरे मन मुकुर में थे जो,
उसको मुट्ठी में धर न सका ।
न जाने किसने अनायास फिर,
मेरे नाम वसियत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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विटप ओट में छुपकर उसने,
 वन का सारा राज टटोला,
मालिगन को रिश्वत देकर,
  बगिया का वो कपाट है खोला।
दावानल लगे लग जाये,
 बात नही ये हैरत की ,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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किये बहुत कोशिश कि मैंने,
मेरा वह मनमीत मिल  जाए,
करके नयन दीदार जिनका,
चमक उठे ये दिल खिल जाए।
हुई साधना मेरी निष्फल ,
मैंने जितनी भी मन्नत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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फंसकर रिश्तों के भ्रमजाल में,
हर कर्तव्य  निभाया  फिर भी ,
रज़ा थी जिसमे समय प्रहरी की,
सब इल्जाम सहा मैं फिर भी ,
होकर हताश उस द्वार से मैंने।
दीप जलाकर रुखसत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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रोज बरसती जल की बूंदे,
फिर भी प्यासा रह जाता वो,
आते जाते मेघों के कर ,
कुछ सन्देश है भिजवाता वो।
है चातक की अटल तपस्या ,
या फिर किसी ने दहशत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।

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रोज बसाता हूं यह सोच के,
अपनें  अरमानो की बस्ती,
कभी तो स्थिर हो जाएगी,
एक न एक दिन मेरी हस्ती।
तूफानों का रेला आकर ,
बार बार यही हरकत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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चीर समय के तेज धार को,
मैनें उसको चलते देखा ,
अपने मंजिल की वेदी पर ,
सब कुछ अर्पण करते देखा।
फिर भी उसको न्याय दिलाने,
नही समय ने हिम्मत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

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गुरुवार, 18 मार्च 2021

बारी सबकी आएगी

रचनाकार  -  कुर्मी रामावतार चन्द्राकर
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होना मत हैरान सखे ,
जो बांटा है मिल जाएं तो,
खाएं थे जिस पेड़ से आम ,
वो पत्थर गर बरसाए तो।
गुजरी हुई वो समय की कतरन,
अवसि लौट के आएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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देख खाक होती झोपड़ियां,
नयनों में सुख छाया  था ,
बुझती हुई चिंगारी को क्या,
तुमने नही भड़काया था,
चिंगारी है वही; एक दिन,
 दिशा भूल कर जाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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गेंहू की बाली मरोड़कर,
दोनों हाथों से मसला था,
पंकज की कोमल पंखुड़ियां,
पैरों पर रख कुचला था,
जब कालचक्र चाबुक लेकर,
कृत कर्मों को दौड़ायेगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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फलती हुई प्रेम विटप जड़ पर ,
तुमने जब मट्ठा डाला था,
जब तुमने उसे ही मार दिया,
जो तुम पर मरने वाला था।
उन सम्बन्धों का करुण हृदय,
ये चीख चीख चिल्लाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।

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तेरे लिए जब धर्म थे पतले,
और रुपिया खासा मोटा था,
स्वारथ की रस्सी से तुमने,
अपनो का ही गला घोंटा था।
जो रुप है दुनिया मे तेरा ,
वही रूप समय दिखलाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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सूरज से उजियारा लेकर ,
दुनियां को तिमिर परोसा है,
वरदान मिला जिस धड़कन से,
उसको भी तुमने कोसा है।
किरणों के कण को तरसेगा,
बन कालनिशा जब छाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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जब प्यास से व्याकुल चिड़ियों को,
जल पीने से ललकारा था,
जब लौट गया तेरे चौखट से,
कोई दीन समय का मारा था।
अब वही समय कर पीछा तेरा,
 कर्मों का हिसाब लगाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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अवतार सार यही गीता का ,
जो किया है वही भरेगा भी,
नही करम जाल से छूटेगा,
है नियम यही प्रकृति का भी।
जीवन पृष्ठों पर जो हैं लिखा ,
इतिहास वही दोहराएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

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जारी है ........





मंगलवार, 16 मार्च 2021

अपनी अपनी अवकातें

 शीर्षक -  अपनी अपनी अवकातें 
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मौन ही रहकर करता हूं मैं,
अर्थपूर्ण गम्भीर इशारे ,
मेरे मन की लब्ज़ है ये जिसे,
टिमटिमा के कहते हैं तारे ।
चिर गगन के खुले पटल पर ,
 लिख आया हूँ कुछ बातें,
कौन कहां कब किसको क्या दे ,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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हो सागर तुम अपने लिए बस ,
अपना धन रख अपने पास,
मरुभूमि से थककर आया,
बुझा सके न तुम मेरी प्यास।
वही रेत पर तेरे किनारे ,
लिख आया मैं ये बातें ,
कौन कहां कब किसको क्या दे ,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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सेतुबन्ध सागर का सुनकर ,
रामकाज हित वानर आये ,
नल नील हनुमान आदि ने,
जल में फिर पत्थर तैराये ।
वही एक नन्ही सी गिलहरी ,
छोड़ गई कुछ जज़्बाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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अंधे की दरबार मे देखो ,
अंधे बनकर है सब बैठे ,
कहने को  अपने ही अपने,
अपनो का कर त्याग है बैठे।
भरी सभा मे पाण्डुवधू की,
आकर कृष्ण है चीर बढ़ाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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चौराहे पर खड़ा हुआ कोई,
रह रह कर कुछ बोल रहा था,
होकर के हैरान व्यथित वह,
कुछ दुविधा में डोल रहा था।
कितनो पथिक आये और गुजरे,
राह न कोई उसको बतलाते ,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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शुष्क भूमि को प्लावित करती,
जो जल की बूंदे बरसाकर,
सावन में सागर बरसाते,
श्याम घनेरे बादल आकर ।
दो प्रेमी की विरह वेदना,
तप्त हृदय को और तड़पाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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श्रमबिन्दु से सींच के जिसने ,
गुलशन को गुलजार बनाया,
अपने हक के खुशबू बाँटकर,
जिसने वादी को महकाया।
अपने उस करतार के जीवन,
में कुछ है पतझड़ दे जाते ,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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सागर से निकले हुए रत्नों,
को सबने है मिलकर लुटा,
अवनी के आभूषण छिनने,
जन्मरंक बनकर सब छूटा।
स्वयं लुटेरे बनकर बैठे,
दूसरों को हैं सब समझाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

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स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
रचनाकार - रामावतार चन्द्राकर
ग्राम   - महका 
जिला -  कबीरधाम 
    छत्तीसगढ़
9770871110

मंगलवार, 9 मार्च 2021

पाखण्डता

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है सिलसिला ये कैसा,  राह- ए- मजार में ,
खबर नही किसी को,  पर चल रहे हैं सब।
मन मे लिए उमंगे न , जाने किस बात की,
पाने को सुख कौन सा , मचल रहे हैं सब ।

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फैला के वो अशांति,  पाने चले हैं शांति ,
जो कर रहे हैं क्रांति , घर मे समाज मे ।
खुद को कहे वेदांती , फैलाये वही भ्रांति,
दुनिया है जिसको जानती,  गृहकलह काज में।

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मन मे है कलुषताई , तनिक भी न मनुषाई,
हैवानियत है छाई , नजरो में जिसके देखो ।
है बन के वही साई ,  मानवता को ठगे भाई,
जग में है भ्रम फैलाई ,जरा खोल आंखे लेखों।

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अधरों में प्रीति छाई , कपट हृदय में समाई,
पावक है वो लगाई ,  मदमस्त शांती वन में।
फिर भी न चैन आई , पीछे छुरी हैं चलाई,
कालनेमि बन के छाई,  प्रेम भक्ति के आंगन में।

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पाखण्डता की है हद , नही कोई भी है सरहद,
वो अपने बढ़ाने कद ,  गुमराह सबको करते ।
है कौन सी वो मकसद , पाने को जिसकी है जद,
पीकर के कपट का मद , है सबको छला करते ।

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हृदय में नही प्रीति , वह कौन सी है नीति,
करके वो राजनीति,  अपनो को उसने बांटा।
फिर चल गई वो रीति , नित बन रहे हैं भीति,
है सबकि आपबीती ,  है बो गए वो कांटा ।

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खुद को जरा सम्हालो ,  नई ज्ञान दीप जला लो,
इंसानियत को तुम बचा , लो इन क्रूर दानवो से ।
नई रीति तुम बना लो ,  प्रेम भूषण अब सजा लो,
मनभेद को अब टालो ,  मानव का मानवों से।

==============================
अवतार हो तुम्ह राम का ,  है समय ये संग्राम का,
है मर्यादाएं नाम का ,  कर सायक अब सम्हालो।
है शोर त्राहिमाम का,   इन अधम दुष्टो के धाम का,
संधानो सर अंजाम का,  तरकश को अब सजा लो ।
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रचना =    कुर्मि रामावतार चन्द्राकर



रविवार, 28 फ़रवरी 2021

यादें {पहला प्यार}

पहला प्यार 
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कितने बरष है बीत गए पर ,
अब भी आंखों में मुस्काये,
जब कोई छेड़े तार दिल की,
दिल मे हलचल सी उठ जाए,
रह रह कर वो  चेहरा मेरे,
 ख्वाबो में है आ ही जाता ,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता,

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याद मुझे आ ही जाती है,
बचपन की वो लम्हे अब भी, 
छुप के खाने को वो देती ,
मेले से कुछ लाती जब भी ,
मैं भी उसको देख देखकर ,
अपने सारे गम भूल जाता ,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता।
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यह  मेरे मन मीन थे और,
वो सागर की जलराशि जैसी,
अटल तपस्वी था मैं तब और ,
वो मथुरा और काशी जैसी,
उनके स्वप्न भरे नयनों बीच,
मैं भी जीवन स्वप्न सजाता,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता।

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उनकी मीठी बोली आज भी,
 गूंजती है कानों में ऐसे ,
मन बसन्त की  अमराई में ,
कोयल कुक रही हो जैसे ,
उनके आहट मात्र से मन ये ,
उत्सव का वह हुश्न सजाता,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता।

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धीरे से छुपकर के घर से ,
मुझसे मिलने आ ही जाती ,
एक शिक्षक की भांति मुझे वो,
जीवन के सब गुण सिखाती ,
कभी कलम पुस्तक के बहाने ,
मैं भी उससे मिलने जाता ,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता ।

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अवतार मुझे पल याद है अब भी ,
साथ मे मिलकर तारे गिनना ,
गली के नदियों में कागज की,
नाव चलाना साथ मे भींगना ,
निर्छल जीवन का वो मौसम ,
बार बार मुझे रुला ही जाता ,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता ।

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===============================

 जब भी कभी मैं उसको देखु ,
एक तड़पन सी उठती मन मे ,
बिछुड़न की एहसास से उसकी,
दर्द मचल जाता जीवन मे ,
दिल की धड़कन वही पुराना ,
 रो रोकर फिर नगमे गाता,
सच ही कहा है कहने वाले ,
पहला प्यार भुला नही जाता ।
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

भेदी

 
  मौलिक रचना  :- रामावतार चन्द्राकर 

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दीपक को क्या पता अंधेरा कहाँ है, 
उजाले में भी जलाओ जलता रहता है !
गैरो को क्या पता नब्ज नाजुक है कहाँ, 
वो तो अपने है जो इशारे किया करते है !!

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छिड़ा वह घोर युद्ध था जब, 
समर प्रांगण में लंका की !
महारथियों को शस्त्र उठाने, 
किया मजबूर जिसने था !
चलाकर बाण थक गए राम ,
दसानन के भुज मूंडो पर !
छूपा  है नाभी में अमृतघट ,
बताया ये किसने  था ?

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कहे पराजय पृथ्वीराज की ,
या गोरी का जीत कहे हम !
अपनो का घर भेदने वाले ,
जयचन्दों को मित कहे हम!
अपने दम पर चिंगारी को ,
बुझा सके औकात नही!
अपनो को आग परोसे ऐसे,
अनीत को अब क्या रीत कहे हम!!

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नवाब सिराजुदौला का वह ,
दौर हमसे भुला नही जाता !
मीर जाफर की गद्दारी को,
सुनकर रक्त ख़ौल है जाता !
नमक हराम की ड्योढ़ी हमको,
बार बार यह बतलाता है !
कुछ अपने ऐसे भी होते ,
सपनो पर जो ख़ंजर घोप जाता !!

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नई आस

                 नई आस                कल्पना साकार होता दिख रहा है, आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।। छाई थी कुछ काल से जो कालिमा, आज फिर से ध...