बुधवार, 30 जून 2021

भूलें

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:

बड़ी भूल हुई इस जीवन में,
शुभ कर्म अलंकृत कर न सके।
बन मानव तो हम यार गए ,
यश भूषण अंग पर धर न सके ।
बेअदब हो गए दुनिया  में,
नैतिकता का अवरोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

कौड़ी के खातिर रोज मरा ,
पर धन- ए -शाश्वत भूल गया ।
धनराज जहाँ में बनने हित 
औरों को परोस मैं धूल गया 
अपना अपनी मेरा मेरी ,
निज खुशियो का ही शोध रहा ,
हम भूल गए निज धर्म हमे बस 
स्वारथ का ही बोध रहा ।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-
 
कभी गम में किसी बेगाने के ,
दृगबिन्दु  हम छलका न सके ।
गैरो के दुखों पर खूब हँसा,
खुशियों पे गीत हम गा न सके।
ठग लिया जहाँ में अपनों को ,
खुद ठग जाने पर क्रोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

पंक में खुदगर्ज के मेरे कदम ,
पल पल धँसता ही चला गया ।
जो निर्बल मूर्ख धनी जन थे ,
हाथो मेरे  सब छला गया ।
नैतिक यश  वफ़ा सभाओं में,
सर्वत्र ही मेरा विरोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

मैं डूबा रहा  कुसंगतियां बीच,
कछु मानस पूण्य भी कर न सका ।
लालच की प्रचण्ड हवाओं से,
ये मानवमूल्य ठहर न सका ।
हिंसा रत घोर निशा में भी ,
निज उत्थानों का खोज रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

निन्दारत अघमय महफ़िल में ,
कृतघ्नता का ताज पहनाया गया।
कुटिल कामी कपटी लोभी ,
सबका सरताज बनाया गया।
खुश होता रहा इस प्रगति पर ,
ना भले बुरे का प्रबोध रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

अपनी अति उच्च श्रृंखलता से मैं,
मनुजता की हद को लांघ गया ।
मानवमूल्यों  पर पद रखकर ,
मर्कट सा मार छलांग गया ।
मुझे चलने दो स्वेच्छा पथ पर ,
सब जीव जाति से अनुरोध रहा ,
हम भूल गए निज धर्म हमे ,
हमे बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

विनम्रता की नेकी शाखाओं को,
कुटिलता की आरी से काट दिया
इस सभ्य समाज के लोगो को ,
जाति सरहद में बांट दिया ।
पाखण्डवाद रूपी  शस्त्र मेरा ,
निज लक्ष्यभेद में अमोघ रहा ।
हम भूल गए निज धर्म हमे,
बस स्वारथ का ही बोध रहा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-





























मंगलवार, 29 जून 2021

देखनी है मुझे

                  देखनी है मुझे

"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""
दहकती अंगारो में मैंने रख दिया है पांव अब,
ऐ कारे बादल तेरी अवकात देखनी है मुझे ।
बरस ,ना बरस मुझे कोई परवाह नही  अब,
गर्म मेरे आंसू है या ये अंगार ,देखनी है मुझे ।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

चले जाओ की अब ना दिल मे जगह है तेरी,
सांसो की माला से तोड़ दिया नाम का मोती तेरी।
दीये मोहब्बत को मुझे तेल अब नही देना,
तड़पकर बुझती हुई अब लौ ,देखनी है मुझे।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

टूटता  तारा देख कभी मैंने भी मांगी थी मन्नत ,
ऊंचे ऊंचे दरबारों पर दे हाजरी हुआ मस्तक नत।
मिलकर भी वो मिली न मुझको गलियारों में चाहत की,
वफ़ा ए चिलमन को तार तार, देखनी है मुझे ।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

डबडबाती हुई नयनों की समंदर में खोया रहा,
घटा ऐ केश साये में मस्त हो बेखबर सोया रहा।
उफनती स्वास की लहरें की सदा सुनता रहा मै,
क्या रूह को भेद पाएगी मंजर, देखनी है मुझे।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""

अश्क ढलता रहा  दिनकर ने सफर पूरा किया,
इस बीच लगा ख़ंजर ने काम अधूरा  किया।
दिल तो जाता रहा यादों की कश्ती बच गयी,
किस ओर लेकर जाएगी हवा ,देखनी है मुझे।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""''''''""'""
जारी है ....

स्वरचित - रामावतार चन्द्राकर
      9770871110









सोमवार, 28 जून 2021

आचरण


:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

झलकता शब्द से भी है हमारा आचरण हरदम ,
बयां आंखे भी करती है कभी छुपकर कभी हो नम ।
हमारा मौन रहना भी बहुत कुछ बोल जाता है ,
कभी भेद खोल जाती है ये लड़खड़ाती हुई कदम ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

महकती जिस तरह से है सुमन घुलकर हवाओं में ,
बिखरती चांद की रौनक प्रफुल्लित हो दिशाओं में ।
विचलित कभी शुभ कर्म से  'अवतार ' हम  न हो ,
सिखाता है हमे चन्दन सदा  महको फिजाओं में ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

परिणाम से लदी हुई वह आम्र की डाली से सीखो ,
छलक पैमाने से अधरों में लिपटती हुई प्याली से सीखो ।
जियो  संस्कारमय  हरपल चलो नेकी  के राह पर ,
भुलाकर द्वेष को झूमती लताएँ मतवाली से सीखो ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

तृणों को करती है धारण महीधर श्रृंग पर जैसे ,
पृथक कलकंठ कर देती है यूँ नीर क्षीर को जैसे ।
निज दोष हटा, गुणों को अपनाता ही चला चल ,
जगत व्यवहार में निखरो, निखरता है कमल जैसे ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

रखो संयम कि हर नारी को जननी तुल्य हम जाने ,
न हो अपमान कभी भूलकर की देवी हम उन्हें माने ।
कभी आये विपत्ति तुम बहन का भाई बन जाओ  ,
रखे हम शील लक्ष्मण सा नूपुर को ही जो पहचाने ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

बनो सुत तो कभी तुम राम परशुराम बन जाओ ,
सुखों को ताक पर रखकर धरम का मार्ग अपनाओ ।
पिता, पति ,भाई बनकर रिश्तों का सम्मान करो तुम ,
बड़ो का आदर ,माँ का दूध ,पिता का कर्ज निभाओ ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

रहो गम्भीर,उद्द्धि सा न हिय में ज्वार उठने दो  ,
रखो काबू की मन में द्वेष का अंकुर न फूटने दो ।
नही अनहित न कुटिलता न कपट को ही अपनाओ ,
चरित्रवान बनो शील  का  सागर न सूखने दो  ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

गुणगाहक बनो तज दो हमेशा अहम को अपने ,
करो  उदगार  दुनियां का कभी खुद को न दो छपने ।
सहो अपमान भी  हंसकर फुलाकर मुंह न बैठो,
प्रफुल्लित गात हो हरपल और देखो सौम्यमय सपने ।

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

शुक्रवार, 25 जून 2021

चलता ही जाऊंगा

                          
:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

 सौगन्ध  मुझे करनी होगी की भूल, भूल से भी न हो ,
अब शेष बचे इस जीवन मे अपमान किसी का भी न हो ।हो दुर्गम अगम खार मय पथ ना पीछे कदम हटाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

मेरु के शिखर से लेकर उन थार के रेगिस्तानों से
अवनी अम्बर के आंचल से उन दण्डक वन वीरानों से ।
सागर के अन्तरहृद से मैं दसचारी रतन ढूंढ लाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

भुजदण्ड उठाकर राघव ने कानन में जो बात कहा ,
नींद नारी भोजन को त्याग सौमित्र ने जो सन्ताप सहा ।
अंगद के पाव सा मैं भी अब शुभ संकल्पों को जमाउंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-


नवपुंज दिवाकर रश्मि से निज दुर्गुण को नहलाकर के ,
मनोविकार की निकरों को ध्रुवनन्दा से मैं धोकर के ।
अभिअंतर में सद्भावों का दुर्भिक्ष नही पड़ने दूंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

मैं नीलमणि अवलम्बन पर ध्रुव सा अटल विश्वास रखूं ,
विकारों के षणयंत्रो पर  प्रह्लाद सा संयम , आस रखूँ ।
अब कालचक्र आघातों पर मैं मलय का लेप लगाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

चल रहे तिमिरमय राहों में उन पथिको का मैं दीप बनूं ,
खजूर  नही बरगद सा बनूँ स्वातिबून्दों मय सीप बनूँ ।
इन महाभूतों  की शक्ति से पामर को आंख दिखाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-

जीवन की इस समरांगण में  निर्वेद अस्र संधान करूँ ,
अरि शस्त्र प्रहार करे जब भी सदचिदानंद का ध्यान धरूँ 
"अवतार "न मीत न बैर कोई , सिद्धांत यही अपनाऊंगा ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-


भूल गया था जो इन उच्च आदर्शो के प्रतिमानों को ,
करके अटल "प्रतिज्ञा " मैं अब राह नया अपनाऊंगा ।
दया धर्म करुणा मैत्री गुण भाव सदा धारण करके ,
मंजिल की ओर अपनी चलता ही जाऊंगा ।।

-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-:-






बुधवार, 23 जून 2021

मेरी आराधना

कविता का नाम है - मेरी आराधना
रचनाकार -   रामावतार चन्द्राकर
ग्राम - महका,(पंडरिया,कबीरधाम,छत्तीसगढ़)

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

हुआ मेरा सौभाग्य उदय ,
पूर्ण हो गयी मेरी उपासना ।
ना जाने मन मे था कबसे,
जीवन की ये दिव्य कामना ।
मंगलमय हो गया आज मैं, 
खुशियों से जो हुआ सामना।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

अहो देव ये कौन खड़ा है ,
मग में दोनों कर पसारकर ।
हुआ देख मैं जिसे स्तम्भित,
ठिठक गया पग मेरा पलभर।
किन्तु जुटा साहस मैं बोला ,
मैं हूं साधक कोई आम ना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

रोज ही भीड़ में रहकर मैंने ,
सदा अकेले पाया खुद को ।
शुभचिंतक थे पास में मेरे ,
चिंता फिर भी सताया मुझको ।
अपने पराये भला बुरा इस ,
 दौर में मैंने सबको जाना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

जीवन की इस कृपण धार में ,
यूँ ही बहता गया निरन्तर ।
बीत गए दिन बदला मौसम
किन्तु मुझमे न आया अंतर ।
संकल्पित हो खुद को सम्हाला,
फिर कभी ये हिय हुआ हताश ना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

व्यथित हुआ मन मेरा जग में ,
हृदयविदारक दृश्य देखकर ।
लगा बाण सुखरथ जीवन को
मानो अन्तहृदय को भेदकर ।
क्षतविक्षित तब हुए पथिक सब
फिर भी मैंने ना छोड़ी साधना ।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

कलि के कुटिल प्रहारों को मैं,
झेल गया जिस नाम के बल पर।
जितना मुझे उम्मीद नही था ,
वो सब पाया श्री राम के बल पर
बीत गए वो लम्हे दुख के ,
अब अतीत मुझे रहा याद ना ।
जीत गया देखो किस्मत से,
सफल हो गयी मेरी आराधना।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

जिनको सब कुछ मान थे बैठे,
वही हमारा रिपु बन बैठा।
वाह रे स्वार्थी दुनिया तुमने,
अपनो को ही मात दे बैठा ।
कर ली मैंने राम जी से प्रेम,
दुनियां से अब मुझे मियाद ना।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

मोह की ये घनघोर घटायें,
लगता जैसे यही सत्य हो ।
दशो इंद्री में व्याप्त हुआ ज्यो,
अनन्त से केवल यही रहस्य हो।
अंतर्मन की ऊसर भूमि पर,
बरषी मानो ज्ञान की घना।
जीत गया देखो किस्मत से ,
सफल हो गयी मेरी आराधना ।

🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️

















मंगलवार, 22 जून 2021

शब्दों की मर्यादा


●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

दिल मे उतरकर अपनो सा,
             अहसास करा जाती  है ।
और कभी दिल को ही भेद ,
              विक्षुप्त बना जाती है ।
कौन हो तुम क्या नियत तेरी ,
               इसको पता है ज्यादा ।
कीमत आपकी  बतला जाती ,
                   शब्दों की  मर्यादा  ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

गमगीन दुखी हिय अंतश को ,
                   मरहम बन कर सहलाती।
बन शीतल मन्द सुरभित बाऊ,
                       रूठे मन को बहलाती।
निज प्रीतम के उर अंतर में ,
                      छा जाता बन शहजादा ।
कीमत आपकी बतला जाती ,
                      शब्दों की  मर्यादा ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

भाव तेरे अंतर्मन की  ,
          जग में  जाहिर ये कर देती है ।
व्यथा हो या खुशियां तेरी , 
                 सबको प्रकट कर देती है ।
फितरत कैसी क्या मिजाज तेरा ,
                      रंगीन हो या हो सादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,  
                           शब्दों की मर्यादा ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

पल भर में अति स्नेहीजन को ,
                      दुश्मन ये कर जाती है।
सम्बन्धों के ऋतु बसन्त में ये,
                  जब पतझङ बन आती है ।
अति पीड़ादायी इसके घाव है ,
                         ख़ंजर से भी ज्यादा  ।
कीमत आपकी बतला जाती , 
                              शब्दों की मर्यादा ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

बन मधुमय प्याली महफ़िल में ,
                       फिरती है प्रेम लिए ।
व्यथित मन को रोशन करती ,
                   जलती जब लब्ज़ दिए ।
कितनी पाक सौहाद्र भरा दिल,
                      नेक है इनके इरादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,  
                         शब्दों की मर्यादा ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

हताश मन की गहराई में,
               तब ये उतरती है आशा बन ।
ग्रीष्म ग्रसित व्याकुलता को,
                  तब तृप्ति देती बन सावन ।
कोई साथी साथ में चलने का ,
                     जब करने लगे ये वादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,
                           शब्दों की मर्यादा ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

शुचि मय आचरण ही है ,
              दिलो को जीतने का फन ।
फहत हर महफ़िले होगी ,
             जहाँ शामिल हो अपनापन।
नही  सूरज,  बनो  दीपक,
               नही उछलो कभी ज्यादा ।
कीमत आपकी बतला जाती,
                         शब्दों की मर्यादा ।

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●






जारी है....



सोमवार, 14 जून 2021

वृक्ष







शीर्षक - वृक्ष
रामावतार चन्द्राकर की कलम से

1-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

अवनी के आभूषण बनकर ,
                 सुंदरता मैनें ही बढ़ाया ।
मेरे ही फल -फूल- पत्र से ,
                जीवन ,जीवन को है पाया ।
हरित नवीन परिधान कभी ,
                कभी बनकर छत्र सुहाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं ।

2-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

नव पल्लव से मैं आच्छादित ,
                 नित सौरभ लिए महकता हूं ।
किसलय अति शोभित तन मेरे ,
                 अति व्याकुलता भी हरता हूं।
शीतल -मन्द -सुगन्धित संतत ,
                     बाऊ की चँवर डुलाता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                 जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

3-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मैं तीर्थ तपोवन - पावन -उपवन,
                   साधक अटल यशस्वी -सा ।
मैं सहूँ  धूप ,पानी ,पत्थर,
                    न तजु मैं धर्म तपस्वी -सा ।
मैं वृक्ष सदा से हूँ अकाम ,
                    बिनु मांगे ही फल का दाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                   जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

4-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मेरे ही नव पट धारण से ,
               ऋतुयें भी आती जाती है ।
जाति विविध के विहंग बहु ,
               मुझमे ही आश्रय पाती है ।
बादल को बरसने के खातिर,
               संदेश मैं ही भिजवाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
               जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

5-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मैं बन खजूर ,बरगद, चन्दन ,
               जीवन का सिख दे जाता हूं ।
पीपल, जामुन ,महुआ ,कीकर ,
                बन तप्त हृदय सहलाता हूँ ।
मैं बन रसाल- पाटन -पनस ,
                मानव का भेद बताता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
               जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

6-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

सृष्टि के उद्भव से लेकर मैं ,
                 प्रलय की सत्य कहानी हूँ ।
मैं अर्थ,धर्म अरु काम ,मोक्ष ,
                  मैं प्राण जीव की रवानी  हूँ ।
बन ईंधन आग में जलकर के ,
                 मैं उदर की आग बुझाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                 जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

7-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

उत्सव का जश्न मनाता हूँ ,
                आये बसन्त तो झूम - झूम ।
बरसे सावन खिल-खिल जाऊँ,
                 लहराऊ गगन को चूम - चूम ।
अति आतप  को शीतलता दूँ ,
               पतझड़  की मार भी खाता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                 जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

8-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

जगहित में मदन ने मुझ पर छुप ,
                   कभी शिव पर बान चलाया था ।
बालीवध का प्रारूप राम ने ,
                       मेरे आश्रय में ही बनाया था ।
मैं चरक और सुश्रुत का आराध्य,
                           नव चेतनता भर जाता हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                      जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

9-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

बन आयुर्वेद मैं ग्रंथ लिखूं ,
                जख्म हेतु मैं सुधा बन जाऊं ।
कभी साज बनूँ आवाज बनूँ ,
                कदम्ब बन कृष्ण को गोद बिठाऊँ ।
संजीवनी बनकर मैं ही तो ,
               सौमित्र के प्राण प्रदाता हूं ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
               जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

10-🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

मैं परोपकार का मूर्त  रूप ,
                    मुझे आहत हे ! मानव न करो ।
 मेरा रक्षण करो संवर्धन दो ,
                     ना हरण चिर वसुधा का करो ।
मैं वृक्ष ही जीवन सृष्टि पर ,
                     आमोद - प्रमोद का धाता  हूँ ।
प्रकृति प्रदत्त वरदान हूं मैं ,
                      जग पोषण, जीव अधिष्ठाता हूं।

🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

नई आस

                 नई आस                कल्पना साकार होता दिख रहा है, आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।। छाई थी कुछ काल से जो कालिमा, आज फिर से ध...