मौलिक रचना :- रामावतार चन्द्राकर
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दीपक को क्या पता अंधेरा कहाँ है,
उजाले में भी जलाओ जलता रहता है !
गैरो को क्या पता नब्ज नाजुक है कहाँ,
वो तो अपने है जो इशारे किया करते है !!
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छिड़ा वह घोर युद्ध था जब,
समर प्रांगण में लंका की !
महारथियों को शस्त्र उठाने,
किया मजबूर जिसने था !
चलाकर बाण थक गए राम ,
दसानन के भुज मूंडो पर !
छूपा है नाभी में अमृतघट ,
बताया ये किसने था ?
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कहे पराजय पृथ्वीराज की ,
या गोरी का जीत कहे हम !
अपनो का घर भेदने वाले ,
जयचन्दों को मित कहे हम!
अपने दम पर चिंगारी को ,
बुझा सके औकात नही!
अपनो को आग परोसे ऐसे,
अनीत को अब क्या रीत कहे हम!!
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नवाब सिराजुदौला का वह ,
दौर हमसे भुला नही जाता !
मीर जाफर की गद्दारी को,
सुनकर रक्त ख़ौल है जाता !
नमक हराम की ड्योढ़ी हमको,
बार बार यह बतलाता है !
कुछ अपने ऐसे भी होते ,
सपनो पर जो ख़ंजर घोप जाता !!
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