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आकर फिर से देहली मेरे , हृदयांगन को कुसुमित कर जा ।
अतिआतप से व्याकुलता को, हे! बसन्त अब सुरभित कर जा ।।
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मन को झंकृत करती थी जो, सरगम जाने कहाँ गई ।हिय तटनी की नवीन तरंगो ,में आकर नवजीवन भर जा।।
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जिसके कदमताल सुनने को, चौखट में सौ दिये जलाये।
शिशिर निशा की शशि किरण इस, तप्तभूमि में जरा बिखर जा ।।
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महुआ के उस बाग में मैंने, बरसों महफ़िल को है सजाया।
कोयल कूजित अब तो कर दो, ऐ! पायल अब छमछम कर जा ।।
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हिमगिरि के जिस श्रृंग में बैठा, शिशिर ऋतु में अटल तपस्वी ।
निज आगमन ध्वनि से हिय में, मित्रकिरण नवचेतन भर जा ।।
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यहाँ वहाँ घन कबसे बरषे , कोई प्रतीक्षारत है तुम्हारा ।
चातक के प्यासी आँगन में, स्वाति के ऐ! मेघ बरष जा ।।
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तुलसी चन्दन दधि दुर्बा अरु, दीपक लेकर द्वार खड़ा है।
कर्ण है आतुर शब्दध्वनि को, हे! आगन्तुक जरा दरश जा ।।
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हिय उद्द्धि के मंथन से जो ,दिव्य सुधा प्रागट्य हुआ है ।
निज कर से ऐ नई किरण अब, जनमानस में ओजस भर जा ।।
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अलीगन ने है जश्न सजाया, शायद रति ने दस्तक दी है ।
नवकलियों का स्वागत करने ,सोमसुधारस प्याला भर जा ।।
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तम मग के इस गहन कानन में, विस्मृत मन को कोई पुकारे ।
जीवन के कर्कश तारो को, सप्तस्वरों से लयबद्ध कर जा ।।
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मुंडेर पे काग की कर्कश ध्वनि भी ,कानो को प्रिय आज क्यो लागे ?
अपनी आने का प्रमाण दे, ऐ कंगन अब खनखन कर जा ।।
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