शनिवार, 19 दिसंबर 2020

इच्छाशक्ति


अंधेरो की गुलामी से नही आजाद हो पाया ,
नही कुछ पल नसीबो में मेरे खद्योत ही आया ,
समझकर जिंदगी के इन तजुर्बेमय इशारो को,
जिया मन भर के समय जो हक में मेरे आया ।

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नही ख्वाहिश है छू लू मैं उछलकर चांद तारो को
पहन लू मैं न  कभी इन विजय की पुष्पहारो को
जिस मिट्टी की काबिलियत काबिल बना हूं मैं 
उठाकर फेंक दूं दामन से उनके बिखरे खारो को ।

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बिछाकर राह में कांटे सताने की कोशिशें की ,
उसी पथ पर मुझे उसने चलाने की कोशिशें की,
चट्टान बन के रोक लिया उन्ही के काफिले को मैं ,
बहुत शरमायादारो  ने हटाने की कोशिशें की ।

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फिजाओं में है बिखरे हर तरफ रंगीनियाँ देखो,
इस मिट्टी की मेरे मुल्क की मेहरबानियां देखो,
शहर में सज रहा उत्सव फूलों का सेज रातो में,
कहीं सुख चैन नही है लोगो की परेशानियां देखो ।

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इन पर्वतों  को भी मेरी औकात  बता दो ,
ये घमण्ड गर करे तो इसे मेरा पता  दो ,
कहीं मैं रूबरू हो जाऊं न मन्नत ये मांग ले ,
मांझी दशरथ का हूं मैं अवतार बता  दो ।

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गुंजाइशो के बीच मैंने सफर को पूरा किया ,
न लौटा बीच राह से न काम  अधूरा किया ,
टकराने को आते हुए सभी  शिलापुंज को ,
अपनी कठिन संकल्प से पीसकर चुरा किया ।

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मेहनत की आग से तपा और तपता रहा मैं,
आये हुए सब वेदना को  सहता रहा मै
जब जब भी पड़ा मार समय रूपी लोहार का ,
तब निखर के आया और खरा बनता रहा मैं ।

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निकल रही धुंआ इन चिमनियों से दम से मेरे,
अजंता एलोरा की गुफा का मैं हूँ चतुर चितेरे,
बागो को मैंने सींचा मेहनत की जल से अपने,
जो खूब  महक रही है हर शाम और सबेरे  ।

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रचनाकार =  कुर्मी रामावतार चन्द्राकर 














 {खार=कांटे}


मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

ख्वाहिशें


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होती है बेहिसाब ख्वाहिशें ,
सुखद स्वप्न से भरी हुई ।
भौतिक सुख की चकाचौंध में ,
दुल्हन सी सँवरि हुई।

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प्रेमपयोधि में वो कभी ,
मगन हो के डूबकर खो जाता ।
कभी अपने भीतर के मधुबन,
के मीठे फल तोड़ के खाता

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सुंदर ख़्वाब के आसमान में,
उड़ता रहता बहुत सुख पाता।
तारो की नगरी में भी वह ।
अपना एक आशियाँ बसाता ।

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कभी फकीरो की बस्ती में,
खुद को पाकर मस्त हो जाता ।
वैभव की नगरी में वह कभी,
बन  सम्राट है हुकुम सुनाता ।

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बेफिक्री से निर्भय होकर ,
जीवन मग पर कदम बढ़ाता।
मन की जितनी भी इच्छायें ,
पूरन कर  प्रसन्न हो जाता ।

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लेकिन सभी पूरे नही होते ,
बहुत अधूरे रह जाते है ।
जीवन की फिर हरित ख्वाहिशे,
मुरझाकर करके सुख जाते हैं ।

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देखे गए वह सुखद स्वप्न सब,
आंखों से ओझल हो जाते ।
जीवन की शाश्वत सत्य हमारे,
सभी कल्पना को  झुठलाते ।

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उतर आता तब हो उदास मन,
खुली आँखों के पृष्टभूमि पर।
व्यथित हो के घायल पंक्षी सा ,
अम्बर से गिर जाता भूमि पर ।

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बहुत दौड़ाया घोड़े को मै ,
किन्तु रेस में जीत न पाया ।
स्वार्थहीन जीवन के कुछ पल,
का ही सुख मेरे हाथ मे आया ।

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कौन भला हुआ इस जग में ,
पूरनकाम हो जिसकी ख्वाहिशे।
कितनो यतन करो पर सबकी ,
 पूरी होती है चंद  ख्वाहिशे ।

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मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

शेर ए जिंदगी :-{शोषक और शोषित वर्ग}

                    शोषक और शोषित वर्ग
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टूटी हुई कलम  से तुमने गैरो  का  इतिहास लिखा ,
खुद को बादशाह समझे तुम औरो को निज दास लिखा ।
जिनके  बलबूते  पर तुमने ऊँचे पद को पाया है  ,
ऐसे कर्मठ जनो का तुमने फीकी स्याही से ह्रास लिखा ।।

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बैठ के सिंहासन पर तुमने खुद को देवदूत है माना ,
करते रहे मनमानी हरदम अपनो को भी नही पहचाना।
मानवता की मर्यादा का  कभी भी नही खयाल किया ,
बढ़ा के रोटी की लाचारी  सीने पर बंदूक है ताना  ।।

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समाजवादी गणतंत्र विचारें  पहचाने जिस भारत की ,
एक उद्देश्य एक ही नागरिकता थाती है जिस भारत की। 
मूल धर्म परमार्थ पर भी कभी तुमने न विचार किया ,
सुरसा मुख रूपी कुरुक्षेत्र में भेंट चढ़ा दी पारथ की ।।

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लोगो की आवाज दबाकर सबको अपना हुकुम सुनाया,
छीन लिया मरने का हक और जीने पर भी टैक्स लगाया।
संघर्षवाद के सिध्दांतो  को फिर तुमने ललकारा और ,
दुसरो का हक लूटने वाले बुरी आदत से बाज न आया।।

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हाथ में फोड़े पांव में छाले आंखों में  अश्रु की धारा ,
रोटी की एक टुकड़े खातिर बिलख रहा परिवार है सारा।
छप्पन भोग लगाते छक रहे बैठ के अपने कोठे पर , 
भूखे बच्चे देखे फिर भी द्रवित हुआ नही हृदय  तुम्हारा।।

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धिक धिक तेरे वैभव सारे महल दुमहले के शानो को 
तेरे यश में चारण भाट के मुख से गाये हुए गानो को ।
चैन की बंशी नीरो सा तू बाजार रहा अपनी ही धुन में ,
धन के बल पर खूब समेटा चिड़ियों के हक के दानों को।

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मजदूरों की बस्ती में जरा कुछ दिन गुजार के देखो ,
रहो कुछ दिन अभावो में और भूखे रात गुजार के देखो।
खेतो में अन्न उगते कैसे और होती है मजदूरी क्या ,
चंद रुपइयों के खातिर दुसरो से हाथ पसार के देखो ।।

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सर्वाधिकार सुरक्षित - रामावतार चन्द्राकर
ग्राम - महका
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़

 










सोमवार, 30 नवंबर 2020

मेरा समाज


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है फैली चहुँ ओर समाज मे ,
रूढ़िवादी परम्पराएं ।
कुप्रथाएं खुद के होने का ,
पल पल ही एहसास कराए ।
इन सबसे ऊपर उठने को ,
जागरूक हम समाज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने,
 वंश जाती पर नाज करे ।
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स्वारथमयी घनघोर निशा में,
खुद का प्रकाश हम आप बने ।
साम्यवाद प्रगति के पथ पर, 
एक दूजे का विश्वाश बने ।
अपनो बीच सद्भाव जगाने ,
मिलकर हम आगाज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने,
वंश जाती पर नाज करे ।
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कुचली जा रही नवीन सोच  ,
सब कुरीतियों के पांव तले ।
लगा हुआ बाजार है जहं तहं,
अंधविश्वास के छांव  तले ।
ऐसे छद्म कुटिल सियार को,
भगाने हेतु आवाज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाती पर नाज करे ।
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बिखर रही है टूट के अपने,
बंधी हुई थी जो  आशाएं ।
अनुभव और जज्बात लिए दिल,
पीढ़ियों की हर  मर्यादाएं ।
द्वेष जलन सब दुर्भावनाएं ,
दूर करने हित काज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाती पर नाज करे ।
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नशे और कमजोर मनोबल,
दीमक बनकर चांट रही है।
गलतफहमी की दीवारें ,
अपनो को ही बांट रही है ।
सही दिशा मिले कुंठित मन को,
भरकर उमंग परवाज भरे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाति पर नाज करे ।
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आडम्बर और पाखण्डवाद सब,
खोखली करती है मेहराबें ।
टूट के चकनाचूर हो जाते ,
आईने सा सच निर्मल  ख़्वाबे।
सोये हुए हतभाग्य जनो को ,
जागृत करने  आवाज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाति पर नाज करे ।
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सागर में उठती हुई लहरो 
 को अंजाम पता नही होता 
पंकज प्रेम पराग में डूबे ,
मधुकर को ये खता नही होता।
ऐसे हम अपनो में खो जाए 
कुछ तो ऐसा रिवाज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाति पर नाज करे ।
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पुरखो की अनमोल धरोहर ,
खो न जाय यह जतन करे हम ।
निज समाज के उत्थानों हित ,
कर्म कठिन शुभ यतन करे हम ।
तम उलूक अज्ञान मिटाकर ,
बन के आदित्य हम राज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाती पर नाज करे ।
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मोड़ दे नदियों की धाराएं ,
बहा रही जो अपनी पहचानें।
तारागण से हमे क्या लेना ,
चन्दा सूरज  हमे खूब जाने ।
खुले व्योम पृथ्वी सागर पर ,
स्थापित  साम्राज्य हम आज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने,
 वंश जाति पर नाज करे ।
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ऊँचा मस्तक हो समाज का ,
वह पुरुषार्थ अब करना होगा ।
उज्ज्वल और संगठित पाकमय ,
निर्माण समाज का करना होगा ।
दिव्य दिवाकर सा  तेजोमय ,
युवाओ में ओज हम आज भरे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाति पर नाज करे ।
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अप्प दीपो भव की यह भावना ,
को समाज मे भरना होगा।
सुषुप्त हृदय में अलख जगाने ,
क्रांति हमें अब करना होगा ।
बुद्ध के पावन पदचिन्हों  पर ,
मिलकर चलने का रियाज करे ।
हम सब कुल के गौरव अपने ,
वंश जाति पर नाज करे ।
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जारी है .....


 



सोमवार, 23 नवंबर 2020

मेरे राम

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
अभिलाषा इस जीवन का है ,चाहे मन ये सुबहो शाम ।
देखु नयनभर होकर पुलकित , कब आओगे मेरे राम।।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
अंतर्मन मेरा महक उठा बस,
अनुभव को पाकर के तुम्हारा।
स्मृति में आते ही  झुक जाए,
चरणों मे ये शीश  हमारा ।
हर पल तुझको ही मैं गाऊ,
रैन दिवस नित आठो याम।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
कितना प्यारा आकर्षक छबि,
अपनी ओर है मुझे बुलाते ।
मानव मात्र के हृदय पटल पर ,
अपनी दिव्य छटा बिखराते।
इस अनूप छवि को निहारकर ,
व्याकुल मन पाए विश्राम ।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
प्यासे मन को तृप्ति मिले जहाँ,
दिव्य सुधारस केवल तुम्ह हो ।
आच्छादित जिसकी खुशबू से ,
इस तन वन का चन्दन तुम्ह हो ।
जिसके चरित विटप के निचे ,
बैठ सदा ही मिले आराम ।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
परमारथ के मारग  पर चल
मानव मानव है बन सकते ,
होकर ही अभिमान शून्य हम,
यश के भागी हम बन सकते ।
मानवता के  सम्बन्धों को ,
करते तुम्हि परिभाषित राम।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
अछूत नही कोई जाति धर्म से ,
किसने है ये भरम फैलाया ।
निज स्वारथ के सिंहासन पर ,
बैठ के राम को दोष लगाया ।
केवट से मिलकर तुम्ह आओ ,
तब कहना है दोषी राम ।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
अवध भूमि की पावनता अरु,
सरयू की अति शुचि जलधारा।
श्रृंगवेरपुर  गंगा  का तट 
चित्रकूट दण्डकवन  सारा ।
तेरी दिव्य सुरति कर जाती ,
ये सारे अति पावन धाम ।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
रिश्तों की जिस  मर्यादा को,
तुमने था सुदृढ  बनाया ।
वचनबद्धता क्षमा करुणा को ,
मानवता का रीढ़ बनाया ।
टूट रही अब  सब मर्यादाएं।
ना जाने कब मिले विराम।
देखु नयनभर होकर पुलकित ,
कब आओगे मेरे राम ।

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐


समय




वृक्ष




अहंकार



चलता ही जाऊंगा




अधिकार 














 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

ऐ दोस्त ...



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थाम लेती है किनारे अपनी बाहों में ,
रूठकर आती हुई  लहरों के वेग को ।
समा लेती है अपने अंदर समंदर जैसे ,
दौड़कर आती सरिताओं के आवेग को।
फिसलता हुआ पगडंडियों पर चल रहा था मैं,
तेरी दोस्ती ने उस पर चलना सीखा दिया ।
मुझे जीना सीखा दिया मुझे मरना सीखा दिया ,
मुझे चलना ,सम्भलना मुझे निभना सीखा दिया ।

ऐ दोस्त तेरे साथ बिताया गया वो हर लम्हा ,
मेरे मूर्छित मन के लिए मानो संजीवनी था ।
मेरे बंजर दुखमय रूपी हिरन जहाँ रहकर,
सुख पाए तुम्ह ऐसा हरितमय अवनि था।
मैं डूब रहा था जीवन की  दर्दभरी तलैया में,
तुने हाथ पकड़कर मुझको तरना सीखा दिया।
मुझे जीना सीखा दिया , मुझे मरना सीखा दिया ,
मुझे चलना ,सम्भलना मुझे निभना सीखा गया ।

जीवन के दिये हुए घावों पर हमने मिलकर ,
अपने आंसुओ के मरहम को खूब लगाया ।
सांझा किया हर दर्द हर दिन शाम को बैठकर ,
अपने गमो को एक दूसरे के बांहो में छुपाया।
उलझ  गया था मैं अधूरी  मंजिले राह पर,
कुछ दूर साथ चलकर तूने उबरना सीखा दिया ।
मुझे जीना सीखा दिया मुझे मरना सीखा दिया ,
मुझे चलना ,सम्भलना मुझे निभना सीखा दिया ।

शाम होते ही बैठकर उस तालाब के किनारे ,
मैं हर रोज तेरे आने की राह तकता रहता हूं।
इस आस में की तेरे साथ मैं अपनी आज की,
जिंदगी बया करूँगा ये खुद से कहता रहता हूं।
मेरी बोझिल सी थकी शाम को सानिंध्यता ने तेरे ,
दृढ़ होके  विपत्तियों  को सहना सीखा   दिया ।
मुझे जीना सीखा दिया  मुझे मरना सिखा दिया ,
मुझे चलना ,सम्भलना मुझे निभना सीखा दिया ।

अस्ताचल में जाता हुआ सूरज को देखकर ,
मेरा मन रूपी पंकज जब जब हुआ उदास ।
हो प्यास से मै व्याकुल जब भी यूँ बैठा थककर,
प्याली लिए हुए जल की तुझे पाया मैं अपने पास ।
सहकर के मुश्किलो को हो सब्र करके जीना ,
कठिनाइयों से लड़कर निखरना सीखा दिया ।
मुझे जीना सीखा दिया मुझे मरना सीखा दिया,
मुझे चलना ,सम्भलना मुझे निभना सीखा दिया ।

जीवन के इस नाव को जब जब  भी मैंने,
रिश्तों की समंदर की गहराइयों में उतारा ।
लहरों के थपेड़ों से मार खा कर के मैंने ,
फंसकर के भंवरजाल में तब तुझको पुकारा।
बनकर के मांझी तुमने मझधार में उतरकर,
अपनो के आंधियो बीच ठहरना सीखा दिया ।
मुझे जीना सीखा गया, मुझे मरना सिखा गया ,
मुझे चलना ,सम्भलना मुझे निभना सीखा गया ।




बुधवार, 18 नवंबर 2020

शेर -ए-जिंदगी -:{जीवन का दर्द}



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दिल के हकीम दिल के दर्द को बढ़ा गया,
राह ए वफ़ा में झूठी अदाएं  गढ़ा गया ,
कहकर मुझे हमदर्द छलावा किया मुझसे,
फिर अपनी दगाओ के भेंट वो चढ़ा गया ।

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चलता रहा मैं यूं ही मुझे कुछ न था खबर,
शतरंज की मोहरों के जैसे मैं था बेखबर ,
न जाने वो क्या नुश्खे खुदगर्ज कर गया ,
अनजान था मैं धीरे धीरे कर गया असर ।

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दुनियां के उजालो ने मुझे खूब रुलाया,
तन्हाई के आंचल में मैंने खुद को छुपाया ,
निकला वो कातिल ए नकाब में मेरे अपने,
जिस खून के रिश्तों को मैंने खूब निभाया ।

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वो छोड़ गया मुझको था मैं जिसके सहारे,
मैं बैठकर के रोया बहुत दरिया किनारे ,
क्या खूब लिखा है  मेरे रब ने नसीब में ,
उजड़ी पड़ी है कब से जिंदगी की बहारें ।

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जब जिसने मुझे जब भी बुलाया चला गया ,
हर रोज मैं अपनो के ही हाथों छला गया
सब अपनी अहमता में इस कदर डूबा  रहा ,
रोना तो बहुत आया  पर हँसता चला गया ।

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जलाया जिस दिप को प्रकाश के लिए ,
बांधा था मैंने नेह को विश्वास  के लिए ,
वो बुझ गया वो टूट गया राह ए बीच मे ,
वक्त जो सँजोया था जिस आस के लिए ।

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नेकी के पत्थरों को मैं तराशता रहा ,
खुश होता रहा जब उसे निहारता रहा ,
मैं चलता रहा हाथ पूण्य के लिये मशाल,
फिर भी न मिला जिसको मैं तलाशता रहा ।

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बचपन के दौर को मैं जब भी याद करता हूं
आंखों में ले के अश्रुजल आहे मैं भरता हूं ,
वो माँ का आँचल वो हमसाया बाप का ,
ईश्वर से पुनः पाने को फरियाद करता हूं।

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 रचना -रामावतार चंद्राकर 






शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

जन्मभूमि

                              


कवििता का नाम - जन्मभूूमि

रचनाकार - रामावतार चन्द्राकर

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ऐ जन्म भूमि तेरे चरणों पर,
 नित सादर शीश झुकाऊँ मैं,
तेरे अति पावन रजकण को,
 मस्तक पर अपने सजाऊ मैं।
हे ममतामयी तेरी गोदी को ,
पाकर ही सब कुछ पाया है ,
तेरी अनूप इस महिमा को ,
अवतार सदा ही गाऊ मैं।

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वैभव अपार तेरे आँचल में ,
सुख कीर्ति का तू समन्दर है ।
महिमा अमित  रिद्धि सिद्धि ,
सब निधियां तेरे  अंदर है।
तुम सहनशक्ति का मूर्त रूप ,
तुझसे ही आस लगाऊ मैं ।
ऐ जन्म भूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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नवतरु पल्लव से आच्छादित,
नित सौरभ लिए महकता है,।
नव फूल कमलदल खिले हुए ,
पोखर में रूप सा सजता हैं ।
तेरे सुरभित इस आंगन में कुछ ,
नूतन फूलो को लगाऊ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर, 
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।                              
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चन्दन कुमकुम  रोचन दुर्बा , 
मस्तक पर सोहत रोली है।
सुंदरता को भी  सुंदर करती ,
ज्यो सोहत दुल्हन डोली है  ।
तेरे अपूर्व  छबि सिंधु को ,
अवलोकत ही   सुख पाऊँ मैं।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊ मै।
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शरद ऋतु की शशिकिरण ,
ज्यों चांदनी से भर देती है ।
त्यों तेरे उपकारी सद्गुण, 
मन की उत्कंठा हर लेती है ।
अतिआतप से व्याकुल मन को,
आँचल में बैठ बहलाऊँ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मै।
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आंगन में आसमान के जैसे ,
तारागण आश्रय पाते हैं ।
पर्वत जैसे अपने ऊपर  ,
बहु वनस्पति को उगाते है ।
वैसे ही तेरे कुनबे पर ,
धर मनुज शरीर इतराऊ मै।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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जे पशुतुल्य भये जग में ,
हतभाग्य अधम वो प्राणी है ।
जो उधम मचाता आंगन में ,
करता अपनी मनमानी है।
ऐसे कृतघ्न कुपुत्रो को ,
कुछ ज्ञान का पाठ पढाऊ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर ,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं।
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खेले कूदे हम पले बड़े ,
तुम जननी सी प्यार लुटाती रही।
तुझे लाखो कष्ट दिए हमने ,
उसे सहती रही भुलाती रही।
सुकृति मेरा कछु शेष रहे तो, 
पुनः आँचल में जन्म पाऊँ मैं ।
ऐ जन्मभूमि तेरे चरणों पर,
नित सादर शीश झुकाऊँ मैं ।
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जारी है ......







गुरुवार, 12 नवंबर 2020

पथिक

    कविता का नाम - पथिक
रचनाकार -रामावतार चन्द्राकर

ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना,
शूल है बिखरे हुए हर पथ पर,तुम मत कभी मचलना ।                                   🌻
सुन ले पथिक कभी भूल न जाना ,दुनिया की ये चाले,
चलते चलते पांव में दोनों  ,तेरे पड़ सकते हैं  छाले ।
आत्मविश्वास और स्वाभिमान की ,भावना मन मे भरना,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना ।

                                🌻
बहुत जटिल और उलझी हुई है ,जीवन की पगडण्डी,
मानो लगा चहूं ओर हर कहीं, छल कपट द्वेष की मंडी।
उलझ न जाना, बेर सी कांटे,सम्भल सम्भल पग धरना ,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के,पग पग देख के चलना।

                             🌻              
मानवता की पृष्ठभूमि पर ,मानवधर्म कुछ ऐसा गढ़ देना ,
मानव बनने का दृढ़ मन्त्र  ,तुम हर मानव पर मढ़ देना ।
मानव, मानव बन जाये बस,इतना ही फर्ज अदा करना ,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना  
                                  🌻
शुचिता का भाव लिए मन मे ,कर्तव्य बोध की लाठी टेक,
पर सेवा पर उपकार सदा ,गैरो में भी अपनापन देख ।
जो जन दीन दुखी असहाय , भूल के भी न उसे छलना,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना ।  
                                🌻
मन मे नही राग न द्वेष कहिं ,तुम ऐसा जीवन अपनाना,
जीवन के मुश्किल घड़ियों में ,दुसवारियों से ना घबराना।
उत्साह और सौहार्द भरा दिल,हिल मिल सबसे निभना,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के  ,पग पग देख के चलना ।

                                    🌻
पर्वत सा अडिग हो तेरा मन ,जो झुके न बुरी अदाओ से ,
जीत लेना लोगो का दिल तुम ,प्रेम की मीठी सदाओं से ।
कर्मठ कठिन दृढ़ लेखनी से,तुम्ह रूठे भाग्य को बदलना,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना ।

                               🌻
जो भटक रहे कर्तव्यों से ,उनको यह मार्ग सुझा जाना ,
जो जला रहे घर अपना ही ,उस चिंगारी को बुझा जाना ।
तुम्ह मित्रकिरण की भांति ,जग में फैले तम को दलना  ,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना ।                                    🌻
मानवधर्म  के मंजिल हेतु ,सुन ऐ पथिक अवतार हो तुम्ह,
राह चराचर को दिखलाने, कर्तव्य पुरुष उदार हो तुम्ह ।
भावी पीढ़ी के कर्णधार तुम ,नित ज्योतिर्मय हो जलना,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना ।

                                🌻
दसानन रूपी बुराई हेतु ,तुम धरना राम अवतार सदा ,
युवाओं के विस्मृत ललाट पर ,बनना स्मृति करतार सदा।
शुचि जन मन के उद्धारक बन,पथ को पवित्र तुम्ह करना,
ऐ राह ए मुसाफिर जीवन के ,पग पग देख के चलना ।

जारी है ,,












नई आस

                 नई आस                कल्पना साकार होता दिख रहा है, आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।। छाई थी कुछ काल से जो कालिमा, आज फिर से ध...