रविवार, 21 मार्च 2021

क्या कहूँ ?

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

पाने को मंजिल की खुशबू ,
कितने फूलों को मसल दिया,
कुमुदनी इंदु को अर्पित की ,
सूरज को नव कमल दिया।
आह्लाद हुआ मन जिसको पाकर,
 जाने किसने रहमत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

मीलों  चलकर जलकर आग में ,
जिसको हासिल कर न सका,
अरमान मेरे मन मुकुर में थे जो,
उसको मुट्ठी में धर न सका ।
न जाने किसने अनायास फिर,
मेरे नाम वसियत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

विटप ओट में छुपकर उसने,
 वन का सारा राज टटोला,
मालिगन को रिश्वत देकर,
  बगिया का वो कपाट है खोला।
दावानल लगे लग जाये,
 बात नही ये हैरत की ,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

किये बहुत कोशिश कि मैंने,
मेरा वह मनमीत मिल  जाए,
करके नयन दीदार जिनका,
चमक उठे ये दिल खिल जाए।
हुई साधना मेरी निष्फल ,
मैंने जितनी भी मन्नत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

फंसकर रिश्तों के भ्रमजाल में,
हर कर्तव्य  निभाया  फिर भी ,
रज़ा थी जिसमे समय प्रहरी की,
सब इल्जाम सहा मैं फिर भी ,
होकर हताश उस द्वार से मैंने।
दीप जलाकर रुखसत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

रोज बरसती जल की बूंदे,
फिर भी प्यासा रह जाता वो,
आते जाते मेघों के कर ,
कुछ सन्देश है भिजवाता वो।
है चातक की अटल तपस्या ,
या फिर किसी ने दहशत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

रोज बसाता हूं यह सोच के,
अपनें  अरमानो की बस्ती,
कभी तो स्थिर हो जाएगी,
एक न एक दिन मेरी हस्ती।
तूफानों का रेला आकर ,
बार बार यही हरकत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

चीर समय के तेज धार को,
मैनें उसको चलते देखा ,
अपने मंजिल की वेदी पर ,
सब कुछ अर्पण करते देखा।
फिर भी उसको न्याय दिलाने,
नही समय ने हिम्मत की,
कर्मों का परिणाम कहूँ या,
 इसको रेखा किस्मत की ।।

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::













गुरुवार, 18 मार्च 2021

बारी सबकी आएगी

रचनाकार  -  कुर्मी रामावतार चन्द्राकर
====================

होना मत हैरान सखे ,
जो बांटा है मिल जाएं तो,
खाएं थे जिस पेड़ से आम ,
वो पत्थर गर बरसाए तो।
गुजरी हुई वो समय की कतरन,
अवसि लौट के आएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================

देख खाक होती झोपड़ियां,
नयनों में सुख छाया  था ,
बुझती हुई चिंगारी को क्या,
तुमने नही भड़काया था,
चिंगारी है वही; एक दिन,
 दिशा भूल कर जाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================

गेंहू की बाली मरोड़कर,
दोनों हाथों से मसला था,
पंकज की कोमल पंखुड़ियां,
पैरों पर रख कुचला था,
जब कालचक्र चाबुक लेकर,
कृत कर्मों को दौड़ायेगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================

फलती हुई प्रेम विटप जड़ पर ,
तुमने जब मट्ठा डाला था,
जब तुमने उसे ही मार दिया,
जो तुम पर मरने वाला था।
उन सम्बन्धों का करुण हृदय,
ये चीख चीख चिल्लाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।

=====================

तेरे लिए जब धर्म थे पतले,
और रुपिया खासा मोटा था,
स्वारथ की रस्सी से तुमने,
अपनो का ही गला घोंटा था।
जो रुप है दुनिया मे तेरा ,
वही रूप समय दिखलाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================

सूरज से उजियारा लेकर ,
दुनियां को तिमिर परोसा है,
वरदान मिला जिस धड़कन से,
उसको भी तुमने कोसा है।
किरणों के कण को तरसेगा,
बन कालनिशा जब छाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================

जब प्यास से व्याकुल चिड़ियों को,
जल पीने से ललकारा था,
जब लौट गया तेरे चौखट से,
कोई दीन समय का मारा था।
अब वही समय कर पीछा तेरा,
 कर्मों का हिसाब लगाएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================

अवतार सार यही गीता का ,
जो किया है वही भरेगा भी,
नही करम जाल से छूटेगा,
है नियम यही प्रकृति का भी।
जीवन पृष्ठों पर जो हैं लिखा ,
इतिहास वही दोहराएगी,
देर सही ; पर धीरे धीरे ,
 बारी सबकी आएगी ।।

======================
जारी है ........





मंगलवार, 16 मार्च 2021

अपनी अपनी अवकातें

 शीर्षक -  अपनी अपनी अवकातें 
=======================

मौन ही रहकर करता हूं मैं,
अर्थपूर्ण गम्भीर इशारे ,
मेरे मन की लब्ज़ है ये जिसे,
टिमटिमा के कहते हैं तारे ।
चिर गगन के खुले पटल पर ,
 लिख आया हूँ कुछ बातें,
कौन कहां कब किसको क्या दे ,
अपनी अपनी अवकातें ।।

=======================

हो सागर तुम अपने लिए बस ,
अपना धन रख अपने पास,
मरुभूमि से थककर आया,
बुझा सके न तुम मेरी प्यास।
वही रेत पर तेरे किनारे ,
लिख आया मैं ये बातें ,
कौन कहां कब किसको क्या दे ,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================

सेतुबन्ध सागर का सुनकर ,
रामकाज हित वानर आये ,
नल नील हनुमान आदि ने,
जल में फिर पत्थर तैराये ।
वही एक नन्ही सी गिलहरी ,
छोड़ गई कुछ जज़्बाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================

अंधे की दरबार मे देखो ,
अंधे बनकर है सब बैठे ,
कहने को  अपने ही अपने,
अपनो का कर त्याग है बैठे।
भरी सभा मे पाण्डुवधू की,
आकर कृष्ण है चीर बढ़ाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================

चौराहे पर खड़ा हुआ कोई,
रह रह कर कुछ बोल रहा था,
होकर के हैरान व्यथित वह,
कुछ दुविधा में डोल रहा था।
कितनो पथिक आये और गुजरे,
राह न कोई उसको बतलाते ,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================

शुष्क भूमि को प्लावित करती,
जो जल की बूंदे बरसाकर,
सावन में सागर बरसाते,
श्याम घनेरे बादल आकर ।
दो प्रेमी की विरह वेदना,
तप्त हृदय को और तड़पाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================

श्रमबिन्दु से सींच के जिसने ,
गुलशन को गुलजार बनाया,
अपने हक के खुशबू बाँटकर,
जिसने वादी को महकाया।
अपने उस करतार के जीवन,
में कुछ है पतझड़ दे जाते ,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================

सागर से निकले हुए रत्नों,
को सबने है मिलकर लुटा,
अवनी के आभूषण छिनने,
जन्मरंक बनकर सब छूटा।
स्वयं लुटेरे बनकर बैठे,
दूसरों को हैं सब समझाते,
कौन कहाँ कब किसको क्या दे,
अपनी अपनी अवकातें ।।

======================
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
रचनाकार - रामावतार चन्द्राकर
ग्राम   - महका 
जिला -  कबीरधाम 
    छत्तीसगढ़
9770871110

मंगलवार, 9 मार्च 2021

पाखण्डता

=========================
है सिलसिला ये कैसा,  राह- ए- मजार में ,
खबर नही किसी को,  पर चल रहे हैं सब।
मन मे लिए उमंगे न , जाने किस बात की,
पाने को सुख कौन सा , मचल रहे हैं सब ।

=========================

फैला के वो अशांति,  पाने चले हैं शांति ,
जो कर रहे हैं क्रांति , घर मे समाज मे ।
खुद को कहे वेदांती , फैलाये वही भ्रांति,
दुनिया है जिसको जानती,  गृहकलह काज में।

============================

मन मे है कलुषताई , तनिक भी न मनुषाई,
हैवानियत है छाई , नजरो में जिसके देखो ।
है बन के वही साई ,  मानवता को ठगे भाई,
जग में है भ्रम फैलाई ,जरा खोल आंखे लेखों।

=============================

अधरों में प्रीति छाई , कपट हृदय में समाई,
पावक है वो लगाई ,  मदमस्त शांती वन में।
फिर भी न चैन आई , पीछे छुरी हैं चलाई,
कालनेमि बन के छाई,  प्रेम भक्ति के आंगन में।

=============================

पाखण्डता की है हद , नही कोई भी है सरहद,
वो अपने बढ़ाने कद ,  गुमराह सबको करते ।
है कौन सी वो मकसद , पाने को जिसकी है जद,
पीकर के कपट का मद , है सबको छला करते ।

==============================

हृदय में नही प्रीति , वह कौन सी है नीति,
करके वो राजनीति,  अपनो को उसने बांटा।
फिर चल गई वो रीति , नित बन रहे हैं भीति,
है सबकि आपबीती ,  है बो गए वो कांटा ।

=============================

खुद को जरा सम्हालो ,  नई ज्ञान दीप जला लो,
इंसानियत को तुम बचा , लो इन क्रूर दानवो से ।
नई रीति तुम बना लो ,  प्रेम भूषण अब सजा लो,
मनभेद को अब टालो ,  मानव का मानवों से।

==============================
अवतार हो तुम्ह राम का ,  है समय ये संग्राम का,
है मर्यादाएं नाम का ,  कर सायक अब सम्हालो।
है शोर त्राहिमाम का,   इन अधम दुष्टो के धाम का,
संधानो सर अंजाम का,  तरकश को अब सजा लो ।
===============================
रचना =    कुर्मि रामावतार चन्द्राकर



नई आस

                 नई आस                कल्पना साकार होता दिख रहा है, आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।। छाई थी कुछ काल से जो कालिमा, आज फिर से ध...