शनिवार, 19 दिसंबर 2020

इच्छाशक्ति


अंधेरो की गुलामी से नही आजाद हो पाया ,
नही कुछ पल नसीबो में मेरे खद्योत ही आया ,
समझकर जिंदगी के इन तजुर्बेमय इशारो को,
जिया मन भर के समय जो हक में मेरे आया ।

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नही ख्वाहिश है छू लू मैं उछलकर चांद तारो को
पहन लू मैं न  कभी इन विजय की पुष्पहारो को
जिस मिट्टी की काबिलियत काबिल बना हूं मैं 
उठाकर फेंक दूं दामन से उनके बिखरे खारो को ।

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बिछाकर राह में कांटे सताने की कोशिशें की ,
उसी पथ पर मुझे उसने चलाने की कोशिशें की,
चट्टान बन के रोक लिया उन्ही के काफिले को मैं ,
बहुत शरमायादारो  ने हटाने की कोशिशें की ।

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फिजाओं में है बिखरे हर तरफ रंगीनियाँ देखो,
इस मिट्टी की मेरे मुल्क की मेहरबानियां देखो,
शहर में सज रहा उत्सव फूलों का सेज रातो में,
कहीं सुख चैन नही है लोगो की परेशानियां देखो ।

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इन पर्वतों  को भी मेरी औकात  बता दो ,
ये घमण्ड गर करे तो इसे मेरा पता  दो ,
कहीं मैं रूबरू हो जाऊं न मन्नत ये मांग ले ,
मांझी दशरथ का हूं मैं अवतार बता  दो ।

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गुंजाइशो के बीच मैंने सफर को पूरा किया ,
न लौटा बीच राह से न काम  अधूरा किया ,
टकराने को आते हुए सभी  शिलापुंज को ,
अपनी कठिन संकल्प से पीसकर चुरा किया ।

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मेहनत की आग से तपा और तपता रहा मैं,
आये हुए सब वेदना को  सहता रहा मै
जब जब भी पड़ा मार समय रूपी लोहार का ,
तब निखर के आया और खरा बनता रहा मैं ।

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निकल रही धुंआ इन चिमनियों से दम से मेरे,
अजंता एलोरा की गुफा का मैं हूँ चतुर चितेरे,
बागो को मैंने सींचा मेहनत की जल से अपने,
जो खूब  महक रही है हर शाम और सबेरे  ।

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रचनाकार =  कुर्मी रामावतार चन्द्राकर 














 {खार=कांटे}


मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

ख्वाहिशें


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होती है बेहिसाब ख्वाहिशें ,
सुखद स्वप्न से भरी हुई ।
भौतिक सुख की चकाचौंध में ,
दुल्हन सी सँवरि हुई।

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प्रेमपयोधि में वो कभी ,
मगन हो के डूबकर खो जाता ।
कभी अपने भीतर के मधुबन,
के मीठे फल तोड़ के खाता

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सुंदर ख़्वाब के आसमान में,
उड़ता रहता बहुत सुख पाता।
तारो की नगरी में भी वह ।
अपना एक आशियाँ बसाता ।

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कभी फकीरो की बस्ती में,
खुद को पाकर मस्त हो जाता ।
वैभव की नगरी में वह कभी,
बन  सम्राट है हुकुम सुनाता ।

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बेफिक्री से निर्भय होकर ,
जीवन मग पर कदम बढ़ाता।
मन की जितनी भी इच्छायें ,
पूरन कर  प्रसन्न हो जाता ।

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लेकिन सभी पूरे नही होते ,
बहुत अधूरे रह जाते है ।
जीवन की फिर हरित ख्वाहिशे,
मुरझाकर करके सुख जाते हैं ।

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देखे गए वह सुखद स्वप्न सब,
आंखों से ओझल हो जाते ।
जीवन की शाश्वत सत्य हमारे,
सभी कल्पना को  झुठलाते ।

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उतर आता तब हो उदास मन,
खुली आँखों के पृष्टभूमि पर।
व्यथित हो के घायल पंक्षी सा ,
अम्बर से गिर जाता भूमि पर ।

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बहुत दौड़ाया घोड़े को मै ,
किन्तु रेस में जीत न पाया ।
स्वार्थहीन जीवन के कुछ पल,
का ही सुख मेरे हाथ मे आया ।

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कौन भला हुआ इस जग में ,
पूरनकाम हो जिसकी ख्वाहिशे।
कितनो यतन करो पर सबकी ,
 पूरी होती है चंद  ख्वाहिशे ।

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मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

शेर ए जिंदगी :-{शोषक और शोषित वर्ग}

                    शोषक और शोषित वर्ग
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टूटी हुई कलम  से तुमने गैरो  का  इतिहास लिखा ,
खुद को बादशाह समझे तुम औरो को निज दास लिखा ।
जिनके  बलबूते  पर तुमने ऊँचे पद को पाया है  ,
ऐसे कर्मठ जनो का तुमने फीकी स्याही से ह्रास लिखा ।।

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बैठ के सिंहासन पर तुमने खुद को देवदूत है माना ,
करते रहे मनमानी हरदम अपनो को भी नही पहचाना।
मानवता की मर्यादा का  कभी भी नही खयाल किया ,
बढ़ा के रोटी की लाचारी  सीने पर बंदूक है ताना  ।।

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समाजवादी गणतंत्र विचारें  पहचाने जिस भारत की ,
एक उद्देश्य एक ही नागरिकता थाती है जिस भारत की। 
मूल धर्म परमार्थ पर भी कभी तुमने न विचार किया ,
सुरसा मुख रूपी कुरुक्षेत्र में भेंट चढ़ा दी पारथ की ।।

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लोगो की आवाज दबाकर सबको अपना हुकुम सुनाया,
छीन लिया मरने का हक और जीने पर भी टैक्स लगाया।
संघर्षवाद के सिध्दांतो  को फिर तुमने ललकारा और ,
दुसरो का हक लूटने वाले बुरी आदत से बाज न आया।।

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हाथ में फोड़े पांव में छाले आंखों में  अश्रु की धारा ,
रोटी की एक टुकड़े खातिर बिलख रहा परिवार है सारा।
छप्पन भोग लगाते छक रहे बैठ के अपने कोठे पर , 
भूखे बच्चे देखे फिर भी द्रवित हुआ नही हृदय  तुम्हारा।।

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धिक धिक तेरे वैभव सारे महल दुमहले के शानो को 
तेरे यश में चारण भाट के मुख से गाये हुए गानो को ।
चैन की बंशी नीरो सा तू बाजार रहा अपनी ही धुन में ,
धन के बल पर खूब समेटा चिड़ियों के हक के दानों को।

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मजदूरों की बस्ती में जरा कुछ दिन गुजार के देखो ,
रहो कुछ दिन अभावो में और भूखे रात गुजार के देखो।
खेतो में अन्न उगते कैसे और होती है मजदूरी क्या ,
चंद रुपइयों के खातिर दुसरो से हाथ पसार के देखो ।।

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सर्वाधिकार सुरक्षित - रामावतार चन्द्राकर
ग्राम - महका
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़

 










नई आस

                 नई आस                कल्पना साकार होता दिख रहा है, आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।। छाई थी कुछ काल से जो कालिमा, आज फिर से ध...