मंगलवार, 16 नवंबर 2021

स्वतन्त्रता-2

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 स्वतन्त्रता का दीपक है वो जला गया,
महाकाल बनके दुश्मन को है दला गया।
तमारी बनके उसने तम को खूब हरा है,
करके फ़िजा को रोशन है वो चला गया ।।

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अभ्यन्तर में जन के उसने है प्रेम भर दिया,
बनके पारस कुधातु को भी हेम कर दिया।
तब का जीवन हम जी रहे थे अर्थहीन हो,
करके जीवन को मुक्त उसमें छेम भर गया।।

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तन से सहते  गुलामी हिय में आग दह रहे,
अपने ही जमीं को न कभी अपना कह रहे।
ये कैसी विवशता ये  कैसा इम्तिहान था,
थी रोटी की लाचारी शीत घाम सह रहे।।

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कोई पूछे पराधीन से क्या होती स्वतन्त्रता है,
पिंजरे में कैद खग को क्या भांति कनकता है।
पराधीनता में सुख नही ये तुलसी ने भी कहा है,
स्वतन्त्रता है सुख की कुंजी बन पुष्प महकता है।।

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बीती वो काली रातें आजाद हो गए अब ,
तब रंक हो गए थे शहजाद हो गए अब।
लहराती हुई ये तिरंगा सन्देश दे रही है ,
बिखरे हुए कभी थे आबाद हो गए अब।।

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उन्मुक्त अब गगन में उड़ जाओ पवन बनकर,
वसुधा की गोदी अब लहराओ चमन बनकर।
'अवतार' अब मिला है खुशियों का ये खजाना,
इठलाओ लहर बनकर खिल जाओ सुमन बनकर ।।

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स्वतंत्रता -3

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स्वतन्त्रता अच्छी नही ,होती जो संस्कार हीन।
कभी कभी बेगैरत भी कर जाती घर को मलिन।।
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घर मे बच्चों को सदा ,आजादी न प्रदान करे।
दण्ड समय पर दीजिये,गलती जो नादान करे।।
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हो स्वतन्त्र जब फंस जाए, लरिका जो कुसंगत में।
मुश्किल होगा फिर उसको,सही रंगन में रंगत में ।।
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सूर्पनखा जो हो स्वच्छंद, पंचवटी में नही जाती ।
खर -दूषन भी बच जाता,शायद लंका भी रही जाती ।।
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मर्यादा से सदा  सुशोभित ,घर का उपवन रहता है ।
सभ्य समाज की रचना करता,बनकर सुमन महकता है।।
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स्वतंत्रता संगीत भी है ,जो लय बन्धन से सज्जित है।
वरना घोर चीत्कार ये,  करता समाज को लज्जित है।।
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संयम धरकर जब नदियां ,बहती है कल-कल करती ।
जीवों को जीवन देती ,कृषको की समस्या हल करती।।
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पवन,आग,भी संयम से,काम अपना जब करता है।
सांसे बनकर जीता है , दीपक बनकर जलता है ।।
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स्वतंत्रता मर्यादित हो जब, प्राण जगे मानवता में ।
जनमानस  में प्रेम जगे, पड़े दरार विषमता में।।
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स्वतन्त्रता-1


विषय - स्वतन्त्रता
दिनांक - 17 अगस्त 2021
रचनाकार  - श्री रामावतार चंद्राकर
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चीर तमय के गहन हिय को,
 दिव्य दिवाकर चमका है ।
कुंठित मन की अभिलाषाएं,
 हो स्वतंत्र अब दमका है ।
कितनों घर का दीप बुझे ,
तब ये उजियारा आया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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सभ्य पुरातन आर्यावर्त की ,
गौरव को जिसने मलिन किया ।
वैभवशाली विरासत को भी ,
कुटिल दृष्टि से गमगीन किया ।
तोड़ बेड़ियां  अब सोने की ,
चिड़िया ने पंख फुलाया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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मूक रही जो स्वप्न सुनहरे ,
पथ भी लथपथ रक्तभरा था ।
जैसे तूफानों में कोई धर ,
शांत रूप में ओज भरा था ।
अवरुद्ध हो गयी वाणी में ,
अब शारद ने वास बनाया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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सिसक रही थी मानवता जो ,
आज वो देखो आनन्दमय है ।
ब्रज,बंशिवट और यमुना तट ,
झूम रही संतुष्ट हृदय है  ।
बैठ कदम्ब पर फिर केशव ने,
मुरली की तान सुनाया है ।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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बोस,भगत,आजाद ने हमको ,
पेश किया सुन्दर नजराना ।
स्वयं हो गए अमर और हमको,
सौप दिया अनमोल खजाना।
श्रृंग हिमालय पर दम्भ मय,
सपनों का तिरंगा लहराया है।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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महक उठी अब गुलशन फिर से,
अलीगन ने  फिर ली अंगड़ाई।
आसमान पर देवताओं ने भी,
हर्षित होकर  दुंदुभि बजाई ।
गन्धर्वों ने मंगलगान किया अरु,
अरुनप्रिया ने सुमन बरसाया है।
खोकर देश की वीर विभूतियाँ,
 स्वतन्त्रता को पाया है ।।

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आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई
जय हिंद

नई आस

                 नई आस                कल्पना साकार होता दिख रहा है, आसमाँ फिर साफ होता दिख रहा है।। छाई थी कुछ काल से जो कालिमा, आज फिर से ध...